Atmadharma magazine - Ank 083
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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ः २३४ः आत्मधर्मः ८३
निमित्त वगेरे पर वस्तुओथी हुं सदाय भिन्न छुं–एम परथी भिन्नतानो निर्णय करवानी पण जेनामां
ताकात नथी तेनामां विकारथी भिन्नतानो निर्णय करवानी ताकात होती नथी. कर्म आत्माने विकार करावे एम माने
तेने तो कर्मथी विकारनी भिन्नतानो निर्णय पण नथी. कर्म मने विकार करावे अथवा पर मने विकार करावे–एम जे
माने तेने विकारथी आत्मानी भिन्नतानो निर्णय करवानो अवकाश नथी, केमके आत्मानी अवस्थामां मिथ्यात्व ने
अज्ञान पर करावे एम तेणे मान्युं, एटले ‘हुं विकारथी जुदो, ज्ञानस्वरूप छुं’ एम स्वभावनी सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान
करवामां तेणे पोतानी स्वाधीनता मानी नहि, तेथी तेने साची श्रद्धा–ज्ञान प्रगट करवानो अवकाश रह्यो नहीं. कर्म
वगेरे पर मने विकार करावे एवा स्थूळ अज्ञाननी तो अहीं वात नथी. पर मने विकार करावता नथी पण हुं मारा
अपराधथी करुं छुं, ते विकार मारुं कर्म छे ने हुं तेनो कर्ता छुं–एम विकारना कर्ताकर्मपणामां जे जीवनी बुद्धि अटकी छे
ते जीव पण अज्ञानी छे. ते अज्ञान केम टळे तेनी अहीं वात छे.
कर्म मने विकार करावे एवी जेनी मान्यता छे तेने तो जड–चेतन बे द्रव्योनी भिन्नतानुं भान नथी. कर्मो
आत्माने विकार करावता नथी एटलुं मान्या पछी जे जीव शुद्ध ज्ञानस्वभावनी रुचि छोडीने पुण्यनी रुचि करे
छे–पुण्यनो हुं कर्ता ने तेनाथी मने अत्यारे के भविष्यमां लाभ थाय एम माने छे–ते पण मिथ्याद्रष्टि छे. पुण्यथी
धर्म थाय अथवा पुण्यथी लाभ थाय–एम जे माने ते जीव पुण्यने पोतानुं कर्तव्य मान्या वगर रहे नहि, एवा
मिथ्याद्रष्टि जीवनी अज्ञानथी उत्पन्न थयेली विकारना कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति, आत्मा अने विकारना भेदज्ञानथी ज
टळे छे.
(४) आत्मा अने क्रोधादिनुं भेदज्ञान
आ जगतमां वस्तु छे ते स्वभावमात्र ज छे, अने ‘स्व’ नुं भवन ते स्व–भाव छे; माटे निश्चयथी
ज्ञाननुं थवुं–परिणमवुं ते आत्मा छे अने क्रोधादिनुं थवुं–परिणमवुं ते क्रोधादि छे. ए प्रमाणे आत्मा अने क्रोधादि
भावोनी भिन्नतानो अनुभव थतां अनादिनुं अज्ञान टळी जाय छे. अने अज्ञान टळी जतां ‘हुं विकारनो कर्ता
ने ते मारुं कर्म’ एवी अज्ञानथी उत्पन्न थयेली कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति पण नाश पामे छे; एटले आत्मा विकारनो
कर्ता थतो नथी अने तेने बंधन थतुं नथी.
अहीं वस्तुना स्वभावनी वात छे के वस्तु छे ते स्वभावमात्र ज छे. आत्मा वस्तु छे ते
ज्ञानस्वभावमात्र ज छे. अवस्थामां विकार थाय छे ते खरेखर आत्मा नथी. दयादि व्यवहारभावो ते खरेखर
वस्तुनो स्वभाव नथी एटले के ते आत्मा नथी. आत्मा तो ज्ञानस्वभावमात्र ज छे, क्रोधादि के दयादि भावो
थाय छे ते ज्ञानस्वभावथी भिन्न छे तेथी ते आत्मा नथी, पण आत्माथी भिन्न छे. क्रोधादि विकारी भावो जडनी
दशामां थता नथी पण आत्मानी दशामां थाय छे,
स्वस्य भवनं स्वभावः अर्थात् विकारभावो स्ववस्तुना
परिणमनमां थाय छे तेथी तेने व्यवहारे स्व–भाव कहेवाय छे, पण ते विकारभाव वस्तुनो मूळ स्वभाव नथी
पण परनिमित्ते थतो विकार छे तेथी तेने परभाव कहेवाय छे. परंतु परवस्तुए ते विकारभाव कराव्यो छे–एवो
परभावनो अर्थ नथी. आत्मानी अवस्थानी लायकातथी विकार थयो छे.
(प) योग्यता अने स्वभाव
पाणी अग्निथी ऊनुं थतुं नथी पण पोताना स्पर्शगुणनी उष्ण थवानी योग्यताथी ज ते ऊनुं थयुं छे.
पाणीनी उष्ण पर्यायमां अग्निनी पर्यायनो अभाव छे. तेम विकारपर्यायमां परवस्तुनो अभाव छे, तेथी
परवस्तु विकार करावती नथी पण अवस्थामां विकार थवानी पोतानी योग्यताथी ज विकार थाय छे. छतां ते
विकारनी योग्यता एक समयपूरती छे, त्रिकाळी स्वभावमां तेनो अभाव छे. जेम उष्णतारूपे थवानो पाणीनो
स्वभाव नथी, शीतळपणे थाय ते ज तेनो स्वभाव छे, तेम चैतन्यमूर्ति आत्मानुं ज्ञानस्वभावे परिणमवुं ते ज
स्वभावभवन छे, विकार थाय ते तेनो स्वभाव नथी. आत्मानो स्वभाव तो ज्ञान ज छे, तेथी ज्ञानपणे
परिणमवुं ते ज निश्चयथी आत्मानो स्वभाव छे. एटले विकारने अने आत्माने स्वभावथी भिन्नता जाणीने,
विकार थाय तेनी रुचिपणे न थवुं पण स्वभावनी रुचिमां ज्ञाताद्रष्टापणानी अवस्थारूपे थवुं ते आत्मानो
स्वभाव छे; विकारनी रुचि करे तेने आत्मस्वभावनो अनादर छे. विकारपणे परिणमन थाय तेने अहीं आत्मा
गण्यो नथी, निर्मळज्ञानभावे परिणमन थईने आत्मामां अभेद थाय ते ज आत्मा छे.
(६) धर्मनी शरूआत
निमित्तनी, व्यवहारनी के पर्यायनी रुचि ते मिथ्यात्व छे, मिथ्यात्व ते आस्रव छे, ते आत्माना
ज्ञानस्वभावथी