तेने तो कर्मथी विकारनी भिन्नतानो निर्णय पण नथी. कर्म मने विकार करावे अथवा पर मने विकार करावे–एम जे
माने तेने विकारथी आत्मानी भिन्नतानो निर्णय करवानो अवकाश नथी, केमके आत्मानी अवस्थामां मिथ्यात्व ने
अज्ञान पर करावे एम तेणे मान्युं, एटले ‘हुं विकारथी जुदो, ज्ञानस्वरूप छुं’ एम स्वभावनी सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान
करवामां तेणे पोतानी स्वाधीनता मानी नहि, तेथी तेने साची श्रद्धा–ज्ञान प्रगट करवानो अवकाश रह्यो नहीं. कर्म
वगेरे पर मने विकार करावे एवा स्थूळ अज्ञाननी तो अहीं वात नथी. पर मने विकार करावता नथी पण हुं मारा
अपराधथी करुं छुं, ते विकार मारुं कर्म छे ने हुं तेनो कर्ता छुं–एम विकारना कर्ताकर्मपणामां जे जीवनी बुद्धि अटकी छे
छे–पुण्यनो हुं कर्ता ने तेनाथी मने अत्यारे के भविष्यमां लाभ थाय एम माने छे–ते पण मिथ्याद्रष्टि छे. पुण्यथी
धर्म थाय अथवा पुण्यथी लाभ थाय–एम जे माने ते जीव पुण्यने पोतानुं कर्तव्य मान्या वगर रहे नहि, एवा
मिथ्याद्रष्टि जीवनी अज्ञानथी उत्पन्न थयेली विकारना कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति, आत्मा अने विकारना भेदज्ञानथी ज
आ जगतमां वस्तु छे ते स्वभावमात्र ज छे, अने ‘स्व’ नुं भवन ते स्व–भाव छे; माटे निश्चयथी
भावोनी भिन्नतानो अनुभव थतां अनादिनुं अज्ञान टळी जाय छे. अने अज्ञान टळी जतां ‘हुं विकारनो कर्ता
ने ते मारुं कर्म’ एवी अज्ञानथी उत्पन्न थयेली कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति पण नाश पामे छे; एटले आत्मा विकारनो
वस्तुनो स्वभाव नथी एटले के ते आत्मा नथी. आत्मा तो ज्ञानस्वभावमात्र ज छे, क्रोधादि के दयादि भावो
थाय छे ते ज्ञानस्वभावथी भिन्न छे तेथी ते आत्मा नथी, पण आत्माथी भिन्न छे. क्रोधादि विकारी भावो जडनी
दशामां थता नथी पण आत्मानी दशामां थाय छे,
पण परनिमित्ते थतो विकार छे तेथी तेने परभाव कहेवाय छे. परंतु परवस्तुए ते विकारभाव कराव्यो छे–एवो
पाणी अग्निथी ऊनुं थतुं नथी पण पोताना स्पर्शगुणनी उष्ण थवानी योग्यताथी ज ते ऊनुं थयुं छे.
परवस्तु विकार करावती नथी पण अवस्थामां विकार थवानी पोतानी योग्यताथी ज विकार थाय छे. छतां ते
विकारनी योग्यता एक समयपूरती छे, त्रिकाळी स्वभावमां तेनो अभाव छे. जेम उष्णतारूपे थवानो पाणीनो
स्वभाव नथी, शीतळपणे थाय ते ज तेनो स्वभाव छे, तेम चैतन्यमूर्ति आत्मानुं ज्ञानस्वभावे परिणमवुं ते ज
स्वभावभवन छे, विकार थाय ते तेनो स्वभाव नथी. आत्मानो स्वभाव तो ज्ञान ज छे, तेथी ज्ञानपणे
परिणमवुं ते ज निश्चयथी आत्मानो स्वभाव छे. एटले विकारने अने आत्माने स्वभावथी भिन्नता जाणीने,
विकार थाय तेनी रुचिपणे न थवुं पण स्वभावनी रुचिमां ज्ञाताद्रष्टापणानी अवस्थारूपे थवुं ते आत्मानो
स्वभाव छे; विकारनी रुचि करे तेने आत्मस्वभावनो अनादर छे. विकारपणे परिणमन थाय तेने अहीं आत्मा
निमित्तनी, व्यवहारनी के पर्यायनी रुचि ते मिथ्यात्व छे, मिथ्यात्व ते आस्रव छे, ते आत्माना