Atmadharma magazine - Ank 083
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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भाद्रपदसंपादकवर्ष सातमुं
रामजी माणेकचंद दोशी
२४७६वकीलअंक अगियारमो
“ चाल, भमरा, गुलाबनी सुगंध लेवा!”
विष्टा उपर रहेनार भमराने जोईने गुलाबना फूलोमां वसनार भमराए तेने कह्युं के ‘हे
भमरा, तुं मारी जातनो छे, गुलाबनी सुगंध लेवा मारी पासे आव.’ विष्टानो भमरो विष्टानी बे
गोळीओ पोताना नाकमां लईने गुलाबना फूल उपर बेठो. गुलाबना भमराए तेने पूछयुं–‘केम,
केवी सुगंध आवे छे?’ तेणे जवाब आप्यो–‘मने तो कांई सुगंध आवती नथी, त्यां हती तेवी ज
गंध छे.’ तेनो जवाब सांभळी गुलाबना भमराए विचार्युं के आम केम? तेना नाकमां जोयुं तो
विष्टानी बे गोळी जोई. ‘अरे, विष्टानी बे गोळी नाकमां राखीने आव्यो छे तेथी फूलनी सुगंध
कयांथी आवे?’ एम कहीने ते गोळी कढावी नाखी. के तरत ज ते विष्टाना भमराए कह्युं–‘अहो!
आवी सुगंध तो कदी लीधी नथी.’ तेम संसारमां अनादिथी रखडता अज्ञानी जीवने ज्ञानी कहे छे के
चाल तने तारुं सिद्धपद दर्शावुं. त्यारे ते अज्ञानी जीव रुचिमां पुण्य–पापनी बे पकडरूप गोळीओ
लईने क्यारेक ज्ञानी पासे–तीर्थंकर भगवान पासे धर्म सांभळवा जाय तोपण तेने पूर्वनी
मिथ्यावासनाथी जे ऊंधुंं मानेलुं छे तेवुं ज देखाय. पण जो एकवार बाह्यद्रष्टिनो आग्रह छोडी, (–
पुण्य–पापनी रुचि छोडीने,) सरळतां राखी ज्ञानीनो उपदेश सांभळे तो शुद्ध निर्मळदशा पामी
जाय; तेने पुण्य–पापनी रुचिरूपी दुर्गंधनो अनुभव छूटीने सिद्धपदनी सुगंधनो अपूर्व अनुभव
थाय. त्यारे तेने एम थाय के अहो, आवो आत्मस्वभाव तो में अत्यारसुधी कदी जाण्यो न हतो,
कदी आवो अनुभव थयो न हतो.
समयसारमां श्री आचार्य भगवान कहे छे के हे भव्य! अमे तने तारो शुद्ध आत्मस्वभाव
देखाडीए छीए, तेने तुं जाण!
(जुओ–समयसार प्रवचन भाग, १ पृ. १२९–१३०)
छुटक नकल८३वार्षिक लवाजम
चार आनाशाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिकत्रण रूपिया
श्री जैन स्वाध्याय–मंदिर सोनगढ (सौराष्ट्र)