Atmadharma magazine - Ank 084
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: २५० : : आत्मधर्म : ८४
टाणां आव्या त्यारे समजतो नथी. कदी अंतरमां पात्रतां लावीने ए वातनुं श्रवण पण कर्युं नथी. बापु!
अनंतकाळे आवा मनुष्यदेहमां आव्यो ने आवा सत्नां टाणां मळ्‌यां, ते वखते जो सत्स्वभाव समजवानो
रस्तो अंतरमां नहि ले तो कोई रीते तारा अवतारनो आरो आवे तेम नथी.
(१८) मुक्तजीवने अवतार न होय
विकार आत्मानो स्वभाव नथी. एकवार पण स्वभावनुं भान करीने विकारनो सर्वथा नाश करे तो
सिद्धदशा प्रगटे, पछी फरीथी ते जीवने कदी विकारनी उत्पत्ति थाय नहि ने ते जीव संसारमां अवतार धारण करे
नहि. जुओ, अत्यारे पण जीवो विकारने वधारवा मांगता नथी पण विकारने घटाडवा मांगे छे. अने हिंसा,
चोरी, अब्रह्म वगेरे जे विकारने घटाडयो तेने फरीथी थवा देवा मांगता नथी. तो जेणे बधाय विकारनो सर्वथा
नाश कर्यो तेने फरीथी विकार थाय ने अवतार ल्ये–एम कदी बने ज नहीं. केम के विकार थवानो आत्मानो
स्वभाव नथी. पहेलांं विकार तद्न टळी गया पहेलांं आवुं भान करवुं जोईए. आवा भान पछी क्रमे क्रमे
विकार टळे छे; आवा भान वगर कदी विकार टळतो नथी.
(१९) एकत्व आत्मानुं शोभायमानपणुं
आत्मा पोताना एकत्वस्वभावमां निश्चल रहे ते शोभायमान छे. आत्माना एकत्वस्वभावनी वात
सुंदर छे, ने एकत्वस्वभावमां बंधननी–विकारनी वात विखवाद उत्पन्न करनारी छे, दुःखरूप छे, एम
आचार्यदेवे समयसारमां कह्युं छे. लोको पण कहे छे के ‘बगडे बे. ’ त्यां बे–पणानी व्याख्या शुं? एक त्रिकाळ
ज्ञानमय स्वभाव अने बीजो विकार, ए बंने परमार्थे जुदां छे, विकार ते स्वभाव नथी ने स्वभावमां विकार
नथी, एम बंने जुदां होवा छतां, तेने जे जुदां नथी जाणतो पण स्वभावने अने विकारने एक माने छे, एटले
बे मां एकपणुं मानतां तेनी श्रद्धा बगडे छे; ज्ञातास्वभाव एकरूप छे तेने न मानतां, ज्ञानस्वभाव पण हुं ने
विकार पण हुं–एम बे पणे मान्यो ते जीवनी अवस्था मिथ्याश्रद्धाथी बगडे छे.
(२०) द्वैतना आश्रये द्वैतनी–विकारनी उत्पत्ति
आत्मा परथी तो त्रिकाळ जुदो छे तेम ज क्षणिक पुण्य–पापथी पण परमार्थे जुदो छे, तेनी साथे
आत्मानी एकता मानवी ते तो द्वैत अने विकारनी उत्पत्तिनुं कारण छे. परंतु एक अभेद आत्मामां गुणभेदथी
द्वैतनी कल्पना करवी ते पण विकारनुं कारण छे. एक अभेद आत्मस्वभावमां अनंत गुणो छे, अनंत गुणोना
अभेदपिंडमां ‘हुं ज्ञान छुं, हुं दर्शन छुं’ ईत्यादि भेदनो विकल्प ते पण द्वैत छे, ते द्वैतना आश्रये आत्माने लाभ
थतो नथी. एक आत्मामां ‘हुं ज्ञान, हुं दर्शन, हुं आनंद’ एवा त्रण प्रकारना रागमिश्रित विचार ते द्वैत छे,
तेनाथी लाभ माने ते मिथ्याद्रष्टि छे,रागथी लाभ माने ते तो मिथ्याद्रष्टि छे, अने अभेद निश्चयस्वभावना
आश्रयने छोडीने भेदरूप व्यवहारना आश्रये लाभनी बुद्धि ते पण मिथ्यात्व छे; केम के भेदना आश्रये पण
रागनी ज उत्पत्ति थाय छे. अभेदस्वभावनी एकताना आश्रये वीतरागता थाय छे. अभेदस्वभावमां गुण–
भेदरूप द्वैतना विचारनी श्रेणीथी पण द्वैतपणुं एटले रागनी उत्पत्ति थाय छे.
(२१)... हवे अंर्तस्वभावसन्मुख था, भाई!
सत् धर्मनी शरूआत पोताना पूर्ण स्वभावना स्वीकारथी थाय छे, ने पूर्णता पण तेना ज आश्रयथी
थाय छे. जुओ भाई, आ तो आत्माना अंर्तमुख थवानी वात छे. अनंतकाळथी बर्हिमुख थईने भटकी रह्यो
छे. बर्हिमुखभाव अनंतकाळ कर्या, हवे अंर्तस्वभावसन्मुख था भाई! ए विना बीजो कोई उपाय शांतिनो
नथी. अंतरसन्मुख थईने स्वभावनो आश्रय कर्या विना सम्यक् प्रतीत नहि थाय; एकत्वस्वभावनी सम्यक्
प्रतीत वगर एकत्वमां लीनता नहि थाय. अने एकत्वस्वभावमां लीनता वगर एकत्वदशा एटले के मुक्ति
नहि थाय. जेम सोनामांथी सोनाना दागीनानी उत्पत्ति थाय छे तेम आत्माना एकत्वनी प्रतीत अने आश्रयथी
एकत्वनी एटले के मुक्तिनी उत्पत्ति थाय छे. परथी भिन्न एकत्वस्वभाव शुं छे? एकत्व कहो के परिपूर्ण कहो,
केम के एक होय ते पोताथी परिपूर्ण ज होय. –एवा पोताना स्वभावनो अंतरमां कदी टच थयो नथी–प्रीति
जागी नथी, अने सत्समागमे ते समजवानी दरकार करी नथी. स्वभावनी रुचि अने प्रतीत वगर मुक्तिनी
शरूआत थती नथी. अंतरमां चैतन्यस्वभावनी रुचि करवी ते एक ज मुक्तिनी शरूआतनो उपाय छे.