Atmadharma magazine - Ank 084
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४७६ : २४९ :
कारण अने निर्विकारी कार्य–एम थयुं; ते मिथ्या मान्यता छे.
(१३) जेनी मुख्यता तेनी उत्पत्ति
लोको ‘हुं आत्मा नवो थयो’ एम कहेता नथी, पण ‘मने आ ईच्छा नवी थई’ एम कहे छे, केम के
ईच्छा ते स्वभावमां नथी. तेनी नवी उत्पत्ति थाय छे. शुभ राग होय तो ठीक–एम जे माने छे ते ज्ञाताने
एकलो श्रद्धामां लेतो नथी पण ईच्छाने–रागने आगळ करीने, राग अने आत्माने भेगा मानीने, द्वैतनी प्रतित
करे छे, तेने द्वैतनी एटले विकारनी ने संयोगनी उत्पत्ति थशे, पण असंयोगी–मुक्तिनी उत्पत्ति नहि थाय. हुं
एकलो ज्ञाता छुं, राग ते हुं नथी–एम ज्ञानस्वभावने आगळ करीने जेणे एकत्व आत्मानी प्रतीति करी तेने
विकारनी ने परसंगनी उत्पत्ति नहि थाय, पण शुद्ध अने असंयोगी मुक्तदशानी उत्पत्ति थशे.
जेम सोनानो स्वभाव कादवना संग वगर एकला रहेवानो छे, तेमांथी कादवनी उत्पत्ति थती नथी
तेमज तेने काट लागतो नथी, ने सोनामांथी सोनानी ज दशा थाय छे. तेम आत्मानो ज्ञाता स्वभाव छे ते कर्म
वगेरे परसंग वगर रहे तेवो तेनो स्वभाव छे, ने तेमांथी विकारनी उत्पत्ति थती नथी, पण ते स्वभावना
आधारे तो शुद्धदशानी ज उत्पत्ति थाय छे. जेणे आवा एकत्व ज्ञातास्वभावनी प्रतीत करी छे तेने
एकत्वभावनी उत्पत्ति थशे ने विकाररूपी काट लागशे नहि तेम ज कर्म वगेरेनो संयोग पण तेने नहि थाय.
जेम लोढामांथी लोढानी दशाओ ज थाय छे अने कादवना संगे तेने काट लागे एवी तेनी योग्यता छे, तेम
अज्ञानी जीव विकार ते ज हुं–एम माने छे, तेने ते अज्ञानभावमांथी विकारनी ज उत्पत्ति थाय छे, अने तेने
कर्म वगेरेनो संयोग टळतो नथी.
(१४) कल्याणनो पंथ
भगवान कहे छे के जेणे एक आत्माने जाण्यो तेणे सर्व जाण्युं, आत्मामां परिपूर्ण ज्ञानसामर्थ्य छे;
आत्माना असंयोगी ज्ञानस्वभावने जाण्या विना व्रत, दान वगेरे गमे ते करे पण जीव कल्याणना पंथे दोरातो
नथी. पोताना आत्माना एकत्व स्वभावने सत्समागमे बराबर जाणीने पोतानी पर्यायने स्वतरफ वाळीने
एकत्व करवुं–ते ज कल्याणनो पंथ छे.
(१५) अवस्थानी योग्यता
अहीं आचार्यदेवे सोनानुं अने लोढानुं द्रष्टांत आप्युं छे. सोनानो तेमज लोढानो स्वभाव काट
लागवानो नथी, पण लोढामां काटनी वर्तमान योग्यता छे, सोनामां काटनी योग्यता पण नथी; तेम ज्ञानी के
अज्ञानी कोईना स्वभावमां विकार नथी; परंतु अज्ञानीने वर्तमान अवस्थामां स्वभावने चूकीने पराश्रयभावे
विकारनी लायकात छे. ज्ञानीए अभेद स्वभावना आश्रये ते अवस्थाना विकारनी योग्यतानो पण नाश कर्यो छे.
(१६) ऊंधा रस्ते अथाग प्रयत्न
आत्मानो स्वभाव शुं छे ते तरफ जे पोतानुं वीर्य नथी वाळतो, ते पोतानुं वीर्य विकार तरफ वाळीने
परनुं हुं करुं–एम मिथ्या अभिमान करीने त्रिकाळी ज्ञाता–स्वभावनी श्रद्धा छोडी दे छे; ते अथाग प्रयत्न करे
तोय तेनुं फळ सवळुं आवे नहीं. तेनो प्रयत्न ज विपरीत छे. सवळो पुरुषार्थ करे तो कार्य न प्रगटे एम बने
नहीं. ऊंधा रस्ते गमे तेटलुं दोडे तोय धारेला स्थाने पहोंचाय नहि, तेम ऊंधी मान्यता राखीने जीव गमे तेटलुं
करे तोये तेने धर्म थाय नहि.
(१७) ज्ञानी समजावे छे के अरे जीव! ....
आत्मानो सहज ज्ञातास्वभाव छे; ते परथी भिन्न अने विकाररहित छे. एवा सहज ज्ञातास्वभावमां
जे विकारथी अने परथी लाभ माने छे तेने ज्ञानी समजावे छे के, अरे जीव! ए मान्यताने छोड रे छोड!
विकारमां आत्मबुद्धि ते मिथ्यात्व छे, ते ऊंधी आत्मबुद्धिने छोड. विकारमां तारो लाभ नथी. विकार तो तारा
सहज–स्वभावनो वेरी छे तेनाथी आत्माने लाभ मानवो छोडी दे. विकार वडे तुं परवस्तुने तारी करवानुं माने
छे पण परवस्तु कदी तारी थती नथी. तें अनादिथी परने–शरीरने पोतानुं करीने राखवानो प्रयत्न कर्यो–मोह
कर्यो, पण एक रजकण पण तारो थयो नथी. तेम ज ते विकारभाव पण तारा स्वभाव साथे कायम रह्यो नथी.
केम के तारी सत्तामां जे चीज नथी ते कदी तारी थाय नहि. तारी त्रिकाळी चैतन्यसत्ता छे, पण कदी पोतानी
सत्तासन्मुख थईने तेनी संभाळ तें करी नथी. अहो, हुं कोण? ए वात पात्र थईने सत्समागमे समजवानां