Atmadharma magazine - Ank 084
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: २४८ : : आत्मधर्म : ८४
(७) सुख अने दुःख
आत्मा पोते स्वभावथी सुखरूप छे, कोई बाह्य संयोगमांथी तेनुं सुख आवतुं नथी. जीवना पोताना
स्वभावमां दुःख नथी तेम ज संयोगमां पण दुःख नथी, पण स्वभावने चूकीने पर वस्तुओना लक्षे पोतानी
अवस्थामां दुःख ऊभुं कर्युं छे. परमां मारुं सुख छे एवी कल्पना जीवने स्वतंत्र सुखरूप थवा देती नथी.
(८) आत्मामां परिपूर्ण ज्ञान–आनंदनी शक्ति
काचा चणामां मीठास भरी छे ते तेने सेकतां प्रगटे छे; ते मीठास तेना स्वभावमांथी ज प्रगटी छे, कोई
संयोगमांथी आवी नथी. जेम काचा चणानो स्वाद तूरो लागे छे अने वावतां ते ऊगे छे. पण तेने सेकतां
मीठास प्रगटे छे अने ते ऊगतो नथी. तेम आत्मानो आनंद–स्वभाव छे, तेमां तूराश नथी. अवस्थानी
कचासथी तूराश एटले के दुःख छे, अने ते जन्म–मरणरूपी संसारमां ऊगे छे. जो अवस्थामां ते दुःख न होय तो
स्वभावनुं भान अने एकाग्रता करीने ते टाळवानुं रहेतुं नथी. अवस्थामां कचास होवा छतां, शक्तिरूपे ज्ञान
अने आनंदथी भरपूर छे–एवुं भान करीने तेमां एकाग्र थाय तो पर्यायमां ज्ञान अने आनंद व्यक्त थाय,
एटले आत्माने दुःख रहे नहि अने जन्ममरणमां ते फरीथी ऊगे नहीं. पोताना ज्ञातास्वभावमां आनंद छे तेने
भूलीने परने लीधे मारामां आनंद छे–एम मान्युं छे, ते मान्यता ज तेने पराश्रयभावथी छूटीने स्वतंत्र
आनंदरूप थवा देती नथी. सिद्ध भगवानने तेमज अरिहंत भगवानने जे परिपूर्ण ज्ञान अने आनंद प्रगट्या
छे ते आत्मानी शक्तिमांथी ज प्रगट्या छे, अने दरेक आत्मामां तेवी शक्ति विद्यमान छे. जो स्वभावमां ज
शक्ति न होय तो करोडो उपायो करवाथी पण बाह्य संयोगमांथी ते आवे नहीं. अने स्वभावमां ज जे शक्ति छे
ते प्रगटवा माटे बाह्य संयोगनी अपेक्षा राखती नथी, पण स्वभावना ज आश्रये प्रगटे छे.
(९) संसारना मूळियां उखेडवानी वात
आत्मा ज्ञान–अमृतनी मूर्ति छे; तेने समज्या विना संसारनां मूळ ऊखडशे नहि. मिथ्यात्व ते संसारनुं
मूळ छे; ते मिथ्यात्वरूपी मूळीयाने ऊखेडया वगर पुण्यभाव करीने स्वर्गमां जाय तोय संसार ऊभो ज
रहेवानो छे. राग–द्वेष तद्न टळी गया पहेलांं आत्माना परिपूर्ण स्वभावनी द्रष्टि अने ज्ञान करीने संसारना
मूळियाने उखेडवानी आ वात छे. आवी स्वभावनी द्रष्टि अने आवुं ज्ञान कर्या वगर कोईने कदी राग–द्वेष
टळता नथी ने मुक्ति थती नथी. परंतु तेने क्षणे क्षणे अधर्म थाय छे.
(१०) स्वभावबुद्धि अने संयोगबुद्धि
अहीं आचार्यभगवान एम कहे छे के स्वभावबुद्धिथी जीवने वीतरागतानी उत्पत्ति थाय छे अने
संयोगबुद्धिथी विकारनी उत्पत्ति थाय छे. संयोगथी स्वभाव प्रगटतो नथी. निमित्त ते संयोग छे, ने उपादान ते
स्वभाव छे. कर्म वगेरे कोई संयोगो ते आत्माने आवरणनुं कारण नथी, पण ते संयोगमां पोतापणानी
मिथ्याभ्रांति ज आवरणनुं कारण छे. एना ए संयोगो ऊभा होवा छतां जो स्वभावनी द्रष्टि करीने ठरे तो
विकार थतो नथी. जेम संयोगो आवरणनुं कारण नथी तेम देव–गुरु–शास्त्र वगेरे संयोगो जीवने मुक्तिनुं पण
कारण नथी. पोते पोताना एकत्व स्वभावने ओळखीने तेना आश्रये ठरे तो ज मुक्ति थाय छे.
(११) आत्मानो त्रिकाळी स्वभाव अने एक समयपुरती ईच्छा
ईच्छा ते आत्मानो स्वभाव नथी. छतां अवस्थामां एक समय पूरती ईच्छानी हयाती छे. ईच्छानो जो
बिलकुल अभाव ज होय तो स्वभावमां तेनो आरोप होई शके नहि. अवस्थामां एक समयपूरती ईच्छा छे,
त्यां तेने जाणतां ईच्छा ते ज हुं–एम अज्ञानीने तेनो स्वभावमां आरोप थई गयो छे. आत्माना मूळ
अनारोप स्वभावमां ईच्छा नथी, ते अनारोप स्वभावने न जाण्यो एटले ईच्छामां आरोप करीने ईच्छा ते ज
हुं एम अज्ञानीए मानी लीधुं छे. ईच्छा वगरना एकला ज्ञाता–स्वभावनी रुचि थया विना कदी द्वैत एटले के
संसार टळतो नथी ने मुक्तिनी लायकात तेने प्रगटती नथी.
(१२) धर्म अने अधर्म
आत्मानो कायमी सत् एकरूप स्वभाव शुं छे तेनी आ वात छे. चैतन्यस्वभावी आत्मा ज्ञानस्वभावे
रहे ते धर्म छे अने विकारपणे थाय ते अधर्म छे. धर्मनी शरूआत सत्स्वभाव जेम छे तेम समजवाथी थाय छे.
जे सत्स्वरूप छे तेने बदले परना आश्रये लाभ थाय एम माने छे तेने धर्म थतो नथी. ईच्छा विकार छे, शुभ
ईच्छाथी धर्मनो लाभ थाय एम माने तो विकार