आत्माना एकरूप ज्ञानस्वभावमां कांई ईच्छा थाय ते द्वैत छे. एक आत्माने पोताना स्वभाव सिवाय
पदार्थोमां कांई फेरफार करवानो आत्मानो स्वभाव नथी. प्रतिकूळ संयोगोने दूर करवा ने अनुकूळ संयोगोनी
प्राप्ति करवी–ते ईच्छानुं कार्य नथी. ईच्छा थाय ते ज्ञानस्वभावथी अन्य छे एटले द्वैत छे. ईच्छा थवा छतां एम
जाणवुं जोईए के आ ईच्छा मारुं स्वरूप नथी तेम ज ते ईच्छाने लीधे परनां कार्य थतां नथी. एम जो ईच्छाने
अने आत्माने भिन्न ओळखीने, ईच्छा–रहित एकला आत्मानो अश्रय करे तो ते अद्वैतना आश्रये
अद्वैतभावनी–शुद्ध पर्यायनी–उत्पत्ति थाय छे. निर्मळ पर्यायमां शुद्धतानी तारतम्यताना अनेक प्रकारो पडता
होवा छतां, दरेक पर्याय एकत्व स्वभावमां ज अभेद थाय छे ते अपेक्षाए तेमां अद्वैतपणुं छे. कोई पर्याय
अभेद स्वभावनो आश्रय छोडती नथी पण अभेदना आश्रये द्रव्य–पर्यायनी एकता ज थाय छे, तेथी तेने
अद्वैत कह्युं छे. परना आश्रये के पर्यायना आश्रये रागनी उत्पत्ति थाय छे अने द्रव्य–पर्यायमां भेद पडे छे माटे
ते द्वैत छे. जगतना पदार्थोथी तो आत्मा जुदो ज छे. छतां पर साथे पोताने अद्वैत माने–परनुं हुं करुं एम
माने–ते तो स्थूळ अज्ञान छे. अहीं तो एक आत्मामां ज द्वैत अने अद्वैतनी वात छे. राग–द्वेषादि भावो थाय ते
आत्माना स्वभावथी द्वैत छे–अन्य छे. ते रागादिथी आत्माने लाभ मानवो एटले के रागादि भावो साथे
आत्माने अद्वैत मानवो ते पण मिथ्यात्व छे. विकाररहित तेमज अवस्थाना रंग–भेद रहित त्रिकाळ एकरूप
ज्ञायकस्वभाव छे ते अद्वैत छे, तेनी ओळखाण करीने तेनो आश्रय करतां निर्मळ वीतरागभाव प्रगटे छे, तेनुं
नाम धर्म छे.
आत्मा ज्ञायक छे. ज्ञाता आत्मा तो पदार्थोनो जाणनार छे; ते ज्ञातास्वभावने बदले अज्ञानी जीव
अज्ञानी जीव, आत्माना एकला–अद्वैत–ज्ञानस्वभावने न मानतां, ज्ञान अने ईच्छाने एकरूप मानीने द्वैत
एटले के विकारभावनी उत्पत्ति करे छे. पोतानो ज्ञान अने सुख स्वभाव छे तेने जाणे तो ईच्छाने पोतानुं
स्वरूप माने नहि एटले ईच्छामां ने परमां सुख माने नहि. जीव अनादिकाळथी संसारमां रखडे छे पण परथी
भिन्न पोताना एकत्वस्वभावने कदी जाण्यो नथी. जो एकत्वस्वभावने जाणे तो पर संग–रहित एकत्वदशा–
मुक्ति–प्रगट थया वगर रहे नहीं.
एटले तेने विकारथी जुदो पडीने निर्मळ अवस्था थती नथी. जडनी अवस्था स्वतंत्रपणे थाय छे, तेमां आत्मानी
ईच्छा काम करती नथी. ईच्छा अनुसार शरीरनी निरोगता क्यारेक रहे तो ते पण आत्मानी ईच्छाने कारणे थयुं
नथी. ईच्छाने निरर्थक न जाणे त्यां सुधी ईच्छाथी भिन्न ज्ञानस्वभावने माने नहि अने ज्ञान साचुं थाय नहीं. जेणे
ईच्छाने पोतानी मानी तेणे ज्ञानस्वभावी एकला आत्माने द्वैतरूपे मान्यो छे, ते मिथ्या मान्यता छे, तेमांथी
संसारनी उत्पत्ति थाय छे. आत्मानो अखंड चैतन्यस्वभाव छे, परथी भिन्न अने स्वभावथी एकरूप एवा
एकत्वस्वभावनी जो श्रद्धा करे तो संसारथी छूटीने जीव एकलो–मुक्त थया विना रहे नहीं.
लाभ माने छे, तेने द्वैतस्वभावनी–रागद्वैषनी उत्पत्ति थाय छे.