Atmadharma magazine - Ank 084
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: २४६ : : आत्मधर्म : ८४
* एकत्वस्वभाव अने द्वैतभाव *
(१) एकवार पण आत्मभान करे तो...
आत्मा ज्ञानानंदस्वभावथी भरेलो पदार्थ छे, ते देहादिथी जुदो छे. ते आत्मस्वभावनुं भान करीने तेमां
एकाग्रता द्वारा राग–द्वेष टाळीने वीतरागता अने केवळज्ञान प्रगट करीने जे अरिहंत भगवान थया, तेमनी
वाणीमां एम उपदेश आव्यो के, आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे; जेवो सिद्धभगवाननो स्वभाव छे तेवो ज दरेक
आत्मानो स्वभाव छे. ते स्वभावनुं भान भूलीने अज्ञान अने राग–द्वेषमां रोकावुं थाय छे ते ज संसार छे.
आत्मानो मूळस्वभाव अनादिअनंत पवित्र शुद्ध होवा छतां जीवे तेनुं भान कर्युं नथी तेथी पर्यायमां थता
विकारने पोतानुं स्वरूप मानीने भवभ्रमणमां रखडे छे. जो सत्समागमे यथार्थ श्रवण करीने एक वार पण
आत्मभान करे तो आत्मामां सिद्धभगवान जेवो आनंद प्रगटे अने मुक्ति थया विना रहे नहि. ते आत्मभान
केम थाय? ते वात अहीं आचार्यभगवान बतावे छे.
(२) भ्रांति अने आत्मभान
भाई, तारो आत्मा आनंदस्वभावी छे, ते ज्ञाता–साक्षीस्वरूप छे. परमां कांई करवानो तेनो स्वभाव
नथी तेम ज परमां राग द्वेष करवानो पण तेनो स्वभाव नथी. तेने बदले हुं परने फेरवुं ने परमांथी सुख लउं–
एवी जे अज्ञानीनी बुद्धि छे ते भ्रांति छे. अवस्थामां ते भ्रांति होवा छतां आत्मानो स्वभाव ज्ञायकमूर्ति शांत
आनंदकंद छे, तेनो कदी नाश थतो नथी. आत्मा अनादिअनंत छे, तेनी शरूआत नथी ने नाश पण नथी. तेनो
कायमी एकरूप रहेनार स्वभाव शुं छे? ते ओळखवो जोईए. अवस्थामां जे राग–द्वेषादि भावो छे ते तो नवा
थाय छे, आत्मा कांई नवो थतो नथी; माटे ते राग–द्वेषादि भावो के शरीर–मन–वाणी ते आत्मानो स्वभाव
नथी, पण रागरहित, शरीररहित कायम ज्ञानानंदस्वभाव छे, ते स्वभावना भानथी भ्रांति टळे छे ने शुद्धता
प्रगटे छे.
(३) ईच्छानुं निरर्थकपणुं
शरीरमां रोग थाय तेने टाळवानी जीव ईच्छा करे छे, पण रोगने ते टाळी शकतो नथी. ईच्छा शरीरमां
पण काम करती नथी. शरीर पोतानुं नथी, तेम ज ईच्छा पण पोतानुं स्वरूप नथी, माटे ईच्छा निरर्थक छे,
आत्माना स्वभावमां ते कांई लाभ करती नथी तेमज परमां पण ते कांई कार्य करती नथी. आत्मानो स्वभाव
तो जाणवा–देखवानो छे, ईच्छा थाय ते आत्मानो स्वभाव नथी. आम ईच्छाने अने आत्मस्वभावने भिन्न
भिन्न जाणीने स्वभावना आश्रये रहेतां निर्मळ पर्यायनी उत्पत्ति थाय छे. एकरूप आत्मस्वभावमां विकारनी
उत्पत्ति थाय ते द्वैतभाव छे, ते विकारना आश्रये विकारनी उत्पत्ति थाय छे. ते वात श्री आचार्यदेव आ
गाथामां कहे छे–
(४) अद्वैतस्वभाव अने द्वैतभाव
द्वैततोद्वैतमद्वैतादद्वैतं खलु जायते।
लोहाल्लोहमयं पात्रं हेम्नोहेममयं यथा।।३१।।
जेवी रीते लोढामांथी लोढामय पात्रनी उत्पत्ति थाय छे तथा सुवर्णमांथी सुवर्णमय पात्रनी उत्पत्ति थाय
छे, तेवी रीते आत्मामां अद्वैतना आश्रये खरेखर अद्वैतनी उत्पत्ति थाय छे, अने द्वैतना आश्रये द्वैतनी उत्पत्ति
थाय छे.
‘बधुं थईने एक आत्मा ज छे, आत्मा सिवाय बीजुं कांई जगतमां छे ज नहि’ –एम अहीं अद्वैतनो
अर्थ न समजवो. जगतमां जीव, अजीव आदि भिन्न भिन्न तत्त्वो छे. विकार अने भेदरहित आत्मानो परथी
भिन्न जे एकरूप स्वभाव छे ते अद्वैत छे, ते स्वभावना आश्रये निर्मळ पर्यायनी उत्पत्ति थाय छे, ते निर्मळ
पर्याय आत्मामां ज अभेद थाय छे तेथी ते अद्वैत छे. माटे कह्युं के अद्वैतना आश्रये अद्वैतनी उत्पत्ति थाय छे.
पर पदार्थो अने विकारी भावो ते आत्मानुं द्वैत छे, तेना आश्रये द्वैतनी एटले विकारनी उत्पत्ति थाय छे.