आत्मा ज्ञानानंदस्वभावथी भरेलो पदार्थ छे, ते देहादिथी जुदो छे. ते आत्मस्वभावनुं भान करीने तेमां
वाणीमां एम उपदेश आव्यो के, आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे; जेवो सिद्धभगवाननो स्वभाव छे तेवो ज दरेक
आत्मानो स्वभाव छे. ते स्वभावनुं भान भूलीने अज्ञान अने राग–द्वेषमां रोकावुं थाय छे ते ज संसार छे.
आत्मानो मूळस्वभाव अनादिअनंत पवित्र शुद्ध होवा छतां जीवे तेनुं भान कर्युं नथी तेथी पर्यायमां थता
विकारने पोतानुं स्वरूप मानीने भवभ्रमणमां रखडे छे. जो सत्समागमे यथार्थ श्रवण करीने एक वार पण
आत्मभान करे तो आत्मामां सिद्धभगवान जेवो आनंद प्रगटे अने मुक्ति थया विना रहे नहि. ते आत्मभान
केम थाय? ते वात अहीं आचार्यभगवान बतावे छे.
भाई, तारो आत्मा आनंदस्वभावी छे, ते ज्ञाता–साक्षीस्वरूप छे. परमां कांई करवानो तेनो स्वभाव
एवी जे अज्ञानीनी बुद्धि छे ते भ्रांति छे. अवस्थामां ते भ्रांति होवा छतां आत्मानो स्वभाव ज्ञायकमूर्ति शांत
आनंदकंद छे, तेनो कदी नाश थतो नथी. आत्मा अनादिअनंत छे, तेनी शरूआत नथी ने नाश पण नथी. तेनो
कायमी एकरूप रहेनार स्वभाव शुं छे? ते ओळखवो जोईए. अवस्थामां जे राग–द्वेषादि भावो छे ते तो नवा
थाय छे, आत्मा कांई नवो थतो नथी; माटे ते राग–द्वेषादि भावो के शरीर–मन–वाणी ते आत्मानो स्वभाव
नथी, पण रागरहित, शरीररहित कायम ज्ञानानंदस्वभाव छे, ते स्वभावना भानथी भ्रांति टळे छे ने शुद्धता
प्रगटे छे.
शरीरमां रोग थाय तेने टाळवानी जीव ईच्छा करे छे, पण रोगने ते टाळी शकतो नथी. ईच्छा शरीरमां
आत्माना स्वभावमां ते कांई लाभ करती नथी तेमज परमां पण ते कांई कार्य करती नथी. आत्मानो स्वभाव
तो जाणवा–देखवानो छे, ईच्छा थाय ते आत्मानो स्वभाव नथी. आम ईच्छाने अने आत्मस्वभावने भिन्न
भिन्न जाणीने स्वभावना आश्रये रहेतां निर्मळ पर्यायनी उत्पत्ति थाय छे. एकरूप आत्मस्वभावमां विकारनी
उत्पत्ति थाय ते द्वैतभाव छे, ते विकारना आश्रये विकारनी उत्पत्ति थाय छे. ते वात श्री आचार्यदेव आ
गाथामां कहे छे–
लोहाल्लोहमयं पात्रं हेम्नोहेममयं यथा।।३१।।
थाय छे.
भिन्न जे एकरूप स्वभाव छे ते अद्वैत छे, ते स्वभावना आश्रये निर्मळ पर्यायनी उत्पत्ति थाय छे, ते निर्मळ
पर्याय आत्मामां ज अभेद थाय छे तेथी ते अद्वैत छे. माटे कह्युं के अद्वैतना आश्रये अद्वैतनी उत्पत्ति थाय छे.
पर पदार्थो अने विकारी भावो ते आत्मानुं द्वैत छे, तेना आश्रये द्वैतनी एटले विकारनी उत्पत्ति थाय छे.