Atmadharma magazine - Ank 085
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page  


PDF/HTML Page 21 of 21

background image
ATMADHARMA Regd. No. B. 4787
संबंधी अजीव’ कह्यां छे. राग पोते जीव नथी पण जीव साथे ते संबंध धरावे छे अने कर्म–नोकर्मने पण अहीं
उपचारथी ‘जीवसंबंधी अजीव’ कह्यां छे, केमके तेओ जीव साथे एक क्षेत्रे संबंधवाळा छे. धर्मास्तिकाय वगेरे
अन्य जे पांच अजीव द्रव्यो छे तेओ अजीवसंबंधी ज अजीव छे. जीवनो स्वभाव नथी ए अपेक्षाए भावकर्म,
द्रव्यकर्म अने नोकर्म–ए त्रणे सरखां ज छे. जेम पुद्गलवडे अने शरीरादिवडे जीव ओळखातो नथी तेम राग
वडे पण जीव ओळखातो नथी. जे जीवस्वभाव नथी ते बधुं अजीव छे. कर्म अने शरीरादि तो त्रिकाळ अजीव
ज छे, अने रागादि भावो जो के जीवनी दशामां उत्पन्न थाय छे तोपण तेओ जीवना स्वभावथी विरुद्ध भावो
होवाथी अजीव छे; माटे जीवथी भिन्न एवा ए अजीव पदार्थोने पोतानां न समजो. –पुण्य–पापने पोतानां न
समजो, कर्मने पोतानां न समजो, शरीरने पोतानां न समजो; ते कोईथी पोताने लाभ न मानो. शुद्ध चैतन्यने
ज जीव मानो, तेने ज उपादेय मानो, तेनुं ज ध्यान करो.
अहीं रागादिक परिणामने अजीव कह्या तेथी एम न समजवुं के ते जड द्रव्यनी दशामां उत्पन्न थाय छे; ते
भावो जीवनी ज दशामां उत्पन्न थाय छे तेथी क्षणिक पर्यायद्रष्टिथी तेने जीवना कहेवाय छे, परंतु तेओ जीवनो
स्वभाव नथी, कर्मना लक्षे थयेला होवाथी कर्मजनित छे, तेथी परमार्थे ते जीव नथी, –अजीव छे. माटे तेने
जीवथी भिन्न समजो. जीव अने अजीव ए बे पदार्थोने उपर मुजब लक्षणोथी भिन्न जाणीने, तेमां शुद्ध
चेतनालक्षणस्वरूप जीव ज ध्यान करवा योग्य छे, बीजुं कांई आदरणीय नथी. साधकदशामां पहेलीथी छेल्ले
सुधी आवो चैतन्यस्वभाव ज आदरणीय छे; पहेलांं सत्समागमे आवो बराबर निर्णय करवो जोईए.
() ज्ञ ? : राग करवाथी जीव–अजीवनुं भेदज्ञान थाय नहीं; पण, आ जे रागादि
थाय छे तेनुं वलण परद्रव्यो तरफ ज जाय माटे ते स्वद्रव्यनो स्वभाव नथी, अने जे ज्ञान थाय छे छे ते पोताथी ज
थाय छे, रागने पण जाणनारुं ज्ञान छे, ने ते ज्ञान रागथी जुदुं छे, माटे एवो ज्ञानस्वभाव ते ज हुं छुं–आम राग
अने ज्ञानना जुदापणानी भावना करतां करतां ज भेदज्ञान थाय छे. पहेलेथी ज ते उपर छे. (३०)
() त् िन्त्र , िन्द्र , िन्द्र ि . : अजीवथी भिन्न जे शुद्धात्मा
बताव्यो तेना ज्ञानादि लक्षणोनुं विशेष वर्णन करे छे–
अमणु अणिंदिउ णणमउ मुनिविरढिउ चिमित्तु।
अप्पा इंदियविसउ णवि लक्खणु एहु णिरुत्तु।।
३१।।
भावार्थ:– आ आत्मा, परमात्मस्वभावथी विपरीत एवा संकल्प–विकल्परूप मनथी रहित छे,
ईन्द्रियोथी रहित छे; ‘ईन्द्रियोथी रहित’ कहेतां ईन्द्रियोना विषयभूत परद्रव्योथी अने ईन्द्रियना अवलंबने थतां
खंड खंड ज्ञानथी पण आत्मा जुदो छे–एटले के अखंड ज्ञानमय छे–एम समजवुं. आत्मा ज्ञानमय छे,
लोकालोकने प्रकाशवाना (जाणवाना) सामर्थ्यवाळो छे. मूर्तिपणा रहित छे, अने चिन्मात्रस्वरूप छे. चिन्मात्र
एटले ज्ञानमात्र, –रागरहित शुद्ध चेतनामात्र; चेतनावडे ज आत्मानुं ग्रहण थाय छे. आत्मा ईन्द्रियनो विषय
नथी अने ईन्द्रियजनित ज्ञानथी पण ते जणातो नथी. रागरहित अतींद्रिय ज्ञानवडे ते जणाय छे. जे ज्ञान
आत्माने जाणे ते ज्ञान अतींद्रिय छे, रागथी ने ईन्द्रियना अवलंबनथी रहित छे. आवुं जेनुं प्रगट लक्षण
कहेवामां आव्युं छे एवा तारा शुद्धात्मस्वभावने हे जीव! तुं निःसंदेहपणे उपादेयरूप जाण.
() न् : बाळक जन्मतांवेंत ज धाववानो विकल्प कोईना
शिखव्या वगर करवा मांडे छे; केम के शरीर ते हुं ने राग ते हुं–एम अनादिथी मान्युं छे. अनादिथी रागमां ज
एकतानी टेव पडी छे, रागनो ज अध्यास कर्यो छे. जेम रागना अध्यासने लीधे ते सहेलुं लागे छे, तेम
चैतन्यनी समजण माटे चैतन्यनो अध्यास करवो जोईए, वारंवार तेना रटण वडे टेव पाडवी जोईए. जेम
‘राग ते हुं’ एम मानवानी टेव पाडी छे तेम ‘चैतन्य ते हुं अने रागादि ते हुं नहि’ एम मानवानो अभ्यास
करवाथी चैतन्यनी समजण अने अनुभव थाय छे. पोते जेनी रुचि अने परिचय करे ते वस्तु जाणवी कठण
लागती नथी. जाणवानो तो पोतानो स्वभाव ज छे, पण कदी आत्मानी रुचि करीने ज्ञानने स्वतरफ
परिणमाव्युं नथी, पण रागमां ज एकता मानी छे. माटे ‘चेतन्यस्वभावनी एकता अने रागथी भिन्नता’
एवा भेदज्ञाननो अभ्यास करवो जोईए.
मुद्रक:– चुनीलाल माणेकचंद रवाणी, शिष्ट साहित्य मुद्रणालय: मोटा आंकडिया, जी. अमरेली ता. १०–११–५०
प्रकाशक:– श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, मोटा आंकडिया: (जी. अमरेली)