उपचारथी ‘जीवसंबंधी अजीव’ कह्यां छे, केमके तेओ जीव साथे एक क्षेत्रे संबंधवाळा छे. धर्मास्तिकाय वगेरे
अन्य जे पांच अजीव द्रव्यो छे तेओ अजीवसंबंधी ज अजीव छे. जीवनो स्वभाव नथी ए अपेक्षाए भावकर्म,
द्रव्यकर्म अने नोकर्म–ए त्रणे सरखां ज छे. जेम पुद्गलवडे अने शरीरादिवडे जीव ओळखातो नथी तेम राग
वडे पण जीव ओळखातो नथी. जे जीवस्वभाव नथी ते बधुं अजीव छे. कर्म अने शरीरादि तो त्रिकाळ अजीव
ज छे, अने रागादि भावो जो के जीवनी दशामां उत्पन्न थाय छे तोपण तेओ जीवना स्वभावथी विरुद्ध भावो
होवाथी अजीव छे; माटे जीवथी भिन्न एवा ए अजीव पदार्थोने पोतानां न समजो. –पुण्य–पापने पोतानां न
समजो, कर्मने पोतानां न समजो, शरीरने पोतानां न समजो; ते कोईथी पोताने लाभ न मानो. शुद्ध चैतन्यने
स्वभाव नथी, कर्मना लक्षे थयेला होवाथी कर्मजनित छे, तेथी परमार्थे ते जीव नथी, –अजीव छे. माटे तेने
जीवथी भिन्न समजो. जीव अने अजीव ए बे पदार्थोने उपर मुजब लक्षणोथी भिन्न जाणीने, तेमां शुद्ध
चेतनालक्षणस्वरूप जीव ज ध्यान करवा योग्य छे, बीजुं कांई आदरणीय नथी. साधकदशामां पहेलीथी छेल्ले
सुधी आवो चैतन्यस्वभाव ज आदरणीय छे; पहेलांं सत्समागमे आवो बराबर निर्णय करवो जोईए.
थाय छे, रागने पण जाणनारुं ज्ञान छे, ने ते ज्ञान रागथी जुदुं छे, माटे एवो ज्ञानस्वभाव ते ज हुं छुं–आम राग
अने ज्ञानना जुदापणानी भावना करतां करतां ज भेदज्ञान थाय छे. पहेलेथी ज ते उपर छे. (३०)
अप्पा इंदियविसउ णवि लक्खणु एहु णिरुत्तु।।
खंड खंड ज्ञानथी पण आत्मा जुदो छे–एटले के अखंड ज्ञानमय छे–एम समजवुं. आत्मा ज्ञानमय छे,
लोकालोकने प्रकाशवाना (जाणवाना) सामर्थ्यवाळो छे. मूर्तिपणा रहित छे, अने चिन्मात्रस्वरूप छे. चिन्मात्र
एटले ज्ञानमात्र, –रागरहित शुद्ध चेतनामात्र; चेतनावडे ज आत्मानुं ग्रहण थाय छे. आत्मा ईन्द्रियनो विषय
नथी अने ईन्द्रियजनित ज्ञानथी पण ते जणातो नथी. रागरहित अतींद्रिय ज्ञानवडे ते जणाय छे. जे ज्ञान
आत्माने जाणे ते ज्ञान अतींद्रिय छे, रागथी ने ईन्द्रियना अवलंबनथी रहित छे. आवुं जेनुं प्रगट लक्षण
कहेवामां आव्युं छे एवा तारा शुद्धात्मस्वभावने हे जीव! तुं निःसंदेहपणे उपादेयरूप जाण.
एकतानी टेव पडी छे, रागनो ज अध्यास कर्यो छे. जेम रागना अध्यासने लीधे ते सहेलुं लागे छे, तेम
‘राग ते हुं’ एम मानवानी टेव पाडी छे तेम ‘चैतन्य ते हुं अने रागादि ते हुं नहि’ एम मानवानो अभ्यास
करवाथी चैतन्यनी समजण अने अनुभव थाय छे. पोते जेनी रुचि अने परिचय करे ते वस्तु जाणवी कठण
लागती नथी. जाणवानो तो पोतानो स्वभाव ज छे, पण कदी आत्मानी रुचि करीने ज्ञानने स्वतरफ
परिणमाव्युं नथी, पण रागमां ज एकता मानी छे. माटे ‘चेतन्यस्वभावनी एकता अने रागथी भिन्नता’
एवा भेदज्ञाननो अभ्यास करवो जोईए.