Atmadharma magazine - Ank 085
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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नथी. पुण्य–पाप आत्माना परिणामथी थाय छे तेनुं पण तेने भान नथी.
बीजो प्रकार, जडनी क्रियाथी आत्माने पुण्य–पाप मनावे छे तेने पण जडथी भिन्न आत्माना
परिणामनुं भान नथी.
त्रीजो प्रकार, शुभभावथी धर्म मनावे छे तेने विकारथी भिन्न आत्माना स्वभावनुं भान नथी.
–ए बधाय मिथ्याद्रष्टि छे, तेमनो समावेश संसारतत्त्वमां थाय छे जे जीव परथी पुण्य–पाप मानतो
नथी पण पोताना शुभ–अशुभ परिणामथी पुण्य–पाप माने छे तथा ते पुण्यपरिणामने धर्म मानतो नथी,
पुण्यरहित आत्मस्वभावने जाणे छे ते जीव तत्त्वनी यथार्थ श्रद्धावाळो सम्यग्द्रष्टि छे, ते मोक्षनो साधक छे.
पैसा वगेरे पर पदार्थथी आत्माने पुण्य–पाप थाय ए वात स्थूळ अज्ञान छे. एकेन्द्रिय जीवने बाह्यमां
कांई सामग्री न होवा छतां ते पोताना स्वतंत्र वीर्यनी स्फुरणाथी शुभभाव करे छे. कोई एकेन्द्रिय जीवने एवा
पुण्य थाय छे के त्यांथी नीकळीने सीधो अबजोनी पेदाशवाळा राजकुमार तरीके उपजे छे. तेनी पासे क्यां पैसा
वगेरे छे? अंदर परिणाममां कांईक कषायनी मंदताथी शुभभाव थतां तेना फळमां राजा थाय छे. माटे
बाह्यसाधनथी पुण्य थाय छे–एम नथी. नहितर तो एकेन्द्रिय जीव कदी त्यांथी नीकळी शके ज नहि. आवुं
वस्तुस्वरूप होवा छतां पर चीजथी पुण्य के धर्म मनावतो होय एवो द्रव्यलिंगी साधु ते संसारतत्त्व छे. एक
परमाणुनो बीजा परमाणुमां अभाव छे एटले एक परमाणु बीजा परमाणुना आधारे नथी. एक तत्त्वनो बीजा
तत्त्वमां अभाव होवा छतां एकबीजाने अडे के एकबीजानुं कांई करे–एम मानवुं ते भ्रम छे; ते ऊंधी
मान्यतावाळा जीवो भले द्रव्यलिंगी थया होय तो पण अनंतकाळ सुधी अनंत भावांतररूप संसारपरिभ्रमण
करशे तेथी तेने ज अहीं संसारतत्त्व कह्युं छे.
[–चालु]
(अनुसंधान टाईटल पृष्ठ २ थी चालु)
अभिप्राय करे छे, ते अभिप्रायमां कांई फेर पडतो नथी. आथी सूक्ष्म चैतन्यतत्त्वने समजवा माटे बुद्धि
वधारवानी जरूर नथी पण रुचिने स्वभाव तरफ फेरववानी जरूर छे. चैतन्यस्वभावनी रुचि करवा माटे ओछी
बुद्धिवाळा के वधारे बुद्धिवाळाने फेर पडतो नथी. वधारे बुद्धिवाळो चैतन्यनी जेवी रुचि करे छे तेवी ज रुचि
ओछी बुद्धिवाळो पण करी शके छे. ओछी बुद्धिवाळो जीव पण परमां तो क्यांक रुचि करीने रोकाणो ज छे, तो
जेणे परमां रुचि करी छे ते जीव स्वसन्मुख रुचि करीने आत्मानो निर्णय जरूर करी शके छे. जीव परमां सुख न
होवा छतां तेमां सुखनी कल्पना अने रुचि करे छे तो पोतानो शाश्वत चैतन्यस्वभाव खरेखर सुखरूप छे तेनी
रुचि केम न करी शके? जेम कुंभारने ओछी बुद्धि होय छतां ते कुंभारण उपर वकील करतां पण वधारे रुचिथी
राग करी शके छे, तेमां तेने बुद्धिनी ओछप नडती नथी, तेम घणा शास्त्र भणेला जीव करतां ओछुं भणेलो जीव
पण जो स्वरूपनी तीव्र रुचि करे तो करी शके छे. माटे स्वभावनो महिमा करीने रुचि करवानी छे, ते ज
स्वभाव, समजवानो उपाय छे.
(१९३) रग त जीव नथ पण अजीव छ. : – अहीं आर्चायदेव जीव अजीवनो भेद ओळखावीने जीवनो
स्वभाव बतावे छे. शुद्ध आत्मा त्रिकाळ एकरूप छे ते जीवपदार्थ छे. ए शुद्ध आत्माथी भिन्न जे अजीव पदार्थो
छे ते बे प्रकारना छे–एक तो जीव संबंधी अने बीजुं–अजीव संबंधी. जीवनी अवस्थामां जे रागादि थाय छे ते
जीव नथी पण जीव संबंधी अजीव छे. व्यवहाररत्नत्रयनो राग थाय ते पण जीव संबंधी अजीव छे, जीव नथी.
धर्मास्तिकाय वगेरे द्रव्यो अजीवसंबंधी अजीव छे. अहीं तो रागने पण अजीव कहीने त्रिकाळ एकरूप शुद्ध
जीवस्वभाव ओळखाववो छे. अनादिथी रागादिने ज जीवपणे मानी रह्यो छे तेथी ज मिथ्यात्व रह्युं छे. तेथी
अहीं रागनी द्रष्टि छोडावीने स्वभावद्रष्टि करावे छे. रागने अजीव कहीने तेनी द्रष्टि छोडावी छे, ने शुद्ध
जीवतत्त्वनी प्रतीत करावी छे.
(१९४) जीवन स्वभवन ज जीव समजा, बजा बधन अजीव समजा. अन अ समजीन
न्स् ध्. : चैतन्य पदार्थनी शक्ति परने लीधे खीले एवी मान्यतामां चैतन्यना
स्वतंत्र अस्तित्वनो ज नकार आवे छे. देहादि पर पदार्थो तो आत्माथी जुदा छे, तेना अवलंबने आत्माने
ज्ञान थतुं नथी. अने जीवनी अवस्थामां जे रागादि भावो–दया–पूजा वगेरे भावो थाय छे ते पण जीवने
ज्ञानमां मदद करतां नथी, माटे ते पण अजीव छे. रागादिभावो अजीवद्रव्यमां थतां नथी पण जीवनी दशामां
थाय छे माटे तेने ‘जीव