Atmadharma magazine - Ank 085
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: १८: आत्मधर्म: ८५
प्रमाणे पोताना अविवेकथी तत्त्वनो ऊंधो निर्णय करनार मिथ्याद्रष्टि जीव द्रव्यलिंगी साधु थयो होय तोपण तेने
चार गतिमां परिभ्रमणना मूळियां ऊभा राखनारो संसारतत्त्व गणवामां आव्यो छे. संसारनी पेढी क्यां चाले
छे? के द्रव्यलिंगी मिथ्याद्रष्टि पासे ते संसारतत्त्व छे; संसारतत्त्वनी पेढीनो नायक द्रव्यलिंगी मिथ्याद्रष्टि साधु छे.
प्रवचनसारनी आ छेल्ली पांच गाथाओने श्री अमृतचंद्रसूरीए पांच रत्नोनी उपमा आपी छे, ते
शास्त्रनी कलगी समान छे, अने तेमां वीतरागशासननुं रहस्य भर्युं छे. कळश द्वारा पांच गाथाओनो महिमा
करतां आचार्यदेव जणावे छे के– ‘आ शास्त्रने कलगीना अलंकार जेवां आ पांच सूत्रोरूप निर्मळ पांच रत्नो–के
जेओ संक्षेपथी अर्हंत भगवानना समग्र अद्वितीय शासनने सर्वत: प्रकाशे छे तेओ–विलक्षण (भिन्न भिन्न)
पंथवाळी संसार–मोक्षनी स्थितिने जगत समक्ष प्रगट करतां थकां जयवंत वर्तो. ’
ते पांचमांथी आ पहेली गाथामां संसारतत्त्वनुं स्वरूप बतावतां आचार्य भगवान कहे छे के द्रव्यलिंगी
जैनसाधु थईने पण जेओ तत्त्वनो ऊंधो निश्चय करे छे तेने संसारतत्त्व ज जाणवुं. आत्माना भान सिवाय
फक्त मुनिने आहार देवाना शुभभावथी परितसंसार थई जाय–एम जे मानता होय ते भले त्यागी होय तो
पण संसारतत्त्व ज छे; बाह्यमां त्यागी थई गयो माटे मोक्षमार्गी थई गयो–एम नथी. बहारनी क्रियाओ हुं करुं
छुं ने शुभ–पुण्यथी धर्म थाय–एम जे पदार्थनो अयथार्थ निश्चय करे छे ते मिथ्यात्वमोहने लीधे अनंतकाळ सुधी
संसारमां रखडशे, तेथी ते संसारतत्त्व छे.
आत्मानो धर्म अने अधर्म क्यांय बहार नथी रहेता, पण ते बंने आत्मानी दशामां ज छे. तेमां अधर्म
एटले के संसारतत्त्वनी आ गाथामां ओळखाण करावे छे. आत्मानी अवस्थामां जे दयादि विकारभाव थाय तेने
धर्म माने अथवा जड पैसाथी पुण्य थाय–एम माने तो ते मिथ्या मान्यता छे अने ते संसार छे. पैसाथी पुण्य
थतुं नथी पण जीवना मंदरागथी पुण्य थाय छे, ने जो पैसा खर्चवामां मान–आबरू पोषवानो अशुभभाव होय
तो पाप थाय छे; तेम ज मंदराग करे तेनाथी धर्म थतो नथी पण पुण्य थाय छे, छतां तेनाथी धर्म माने तो ते
ऊंधी मान्यतावाळा जीवो महा मोहथी मलिन छे, तेमनी ऊंधी श्रद्धामां ज संसार पड्यो छे, तेथी ते ज
संसारतत्त्व छे. अहीं अभेद विवक्षाथी ऊंधी मान्यतावाळा जीवने ज संसारतत्त्व कह्यो छे. ते जीवने कर्मनो उदय
ऊंधी श्रद्धा करावतो नथी पण ते पोते–स्वयं अविवेकथी तत्त्वनी ऊंधी श्रद्धा करे छे, तेथी ते संसारमां रखडे छे.
जो बाह्य पदार्थोमां जीवनो संसार होय तो मरतां ते बाह्य संयोग छूटी जतां जीवनो संसार पण छूटी
जाय ने तेनी मुक्ति थई जाय! पण तेम नथी. तत्त्व संबंधमां जीवे अनादिथी ऊंधी मान्यता करी छे, ते ऊंधी
मान्यताथी सततपणे मोहमळथी मलिन वर्ते छे, ने क्षणे क्षणे विकारी भावोमां ज बदल्या करे छे, तेथी ते ज
संसारतत्त्व छे. ऊंधी मान्यता ते ज संसार छे; ते ऊंधी मान्यता अनादिथी एक समय पण तूट पाडतो नथी,
तेथी सतत् मोहने भेगो करीने संसारमां भमे छे. जो एक समय पण ते ऊंधी मान्यतामां तूट पाडीने साची
समजण प्रगट करे तो अल्पकाळमां मुक्ति थया विना रहे नहीं.
परने लईने पुण्य–पाप मानवा ते यथार्थ पदार्थथी विरुद्ध श्रद्धा छे. कसाई गायो लईने जतो होय अने
कोई करुणाभावथी पांचसो रूा. आपीने पांच गायोने छोडावे, तो त्यां गायो छोडाववानो जे भाव कर्यो तेने
कोई पाप कहे तो ते मिथ्याद्रष्टि छे; ते करुणाभावनुं तेने पुण्य छे; पाछळथी ते पांचसो रूा. मां कसाई बीजी
वधारे गायो लावशे माटे तेनी हिंसानुं पाप पेला रूा. आपनारने लागे–एम कोई माने, तो ते वात तद्न
जूठी छे. गायो छोडावनारने तो ते वखतना तेना करुणाभावनुं पुण्य थयुं, पाछळथी कसाई शुं करे तेनुं पाप
तेने नथी.
वळी कोई एम कहे के रूा. खरच्या माटे पुण्य थयुं, तो ते पण मिथ्याद्रष्टि छे. जे पुण्य थयुं ते रूा. ने लीधे
थयुं नथी पण तेना शुभभावथी थयुं छे.
अने त्रीजो कोई, पैसाथी पुण्य थयुं एम न माने, शुभभावथी पुण्य थयुं–एम तो माने, पण ते पुण्यथी
धर्म मनावे तो ते पण मिथ्याद्रष्टि छे. ए त्रणे प्रकारनी मान्यतावाळा जीवोनी श्रद्धा पदार्थथी विपरीत छे.
पहेलो प्रकार, करुणाभाव होवा छतां त्यां पाप मनावे छे तेने आत्माना शुभ–अशुभ परिणामनुं भान