Atmadharma magazine - Ank 085
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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श्री प्रवचनसारजी गाथा २७१ उपर लाठीमां वीर सं.
२४७६ ना जेठ सुद ३ तथा ४ ना रोज पू. गुरुदेवश्रीनुं
प्रवचन
कारतक: २४७७ : १७:
छूटवा माटे अने साचा व्यवहारमां आववा माटे आ नवतत्त्वनी श्रद्धा कामनी छे. पण नव तत्त्वो तो भेद
द्रष्टिथी छे तेथी तेना लक्षे परमार्थ सम्यक्त्व थतुं नथी. अभेद द्रष्टिमां तो एकलो भूतार्थ आत्मा ज छे, तेनी
प्रतीति ते परमार्थ सम्यक्त्व छे. जेने एवुं सम्यग्दर्शन प्रगट करवा चैतन्यना अंतरमां वळवुं छे तेणे पहेलांं
आवी नवतत्त्वनी व्यवहारश्रद्धारूप आंगणे आववुं पडशे.
जेणे पुण्यथी पैसा मळे एम खरेखर मान्युं तेणे पुण्यने अने अजीवने एक मान्यां तथा पैसाथी धर्म
थाय एम मान्युं तेणे पैसा एटले के अजीवने, अने धर्म एटले के संवरतत्त्वने, एक मान्यां. वळी पुण्यथी धर्म
माने तो तेणे पण पुण्य अने संवरतत्त्वने एक मान्यां.––ते बधी मिथ्या मान्यता छे. जेने नवतत्त्वनी श्रद्धा पण
बराबर नथी तेनुं तो आंगणुं पण चोकखुं नथी, ने तेने चैतन्यना घरमां प्रवेश थतो नथी–एटले के सम्यग्दर्शन
थतुं नथी. माटे नवतत्त्वोने जेम छे तेम मानवा जोईए.
त्त्()

संसारतत्त्व शुं छे ते वात आचार्यदेव आ गाथामां करे छे–
समयस्थ हो पण सेवी भ्रम अयथा ग्रहे जे अर्थने, अत्यंत फळ समृद्ध भावी काळमां जीव ते भमे. २७१.
जिनमतनो द्रव्यलिंगी साधु थईने पण जे जीव तत्त्वनी ऊंधी श्रद्धा सेवे ते जीव अनंतसंसारमां रखडे छे.
तेने अहीं संसारतत्त्व कह्युं छे. आत्मा परनुं करे ने पर आत्मानुं करे एम जे मानतो होय, शरीरनी क्रियाथी
आत्माने धर्म थशे–एम मानतो होय तथा अहिंसा वगेरे पंचमहाव्रतना शुभरागथी धर्म थशे एम मानतो होय,
ते जीव भले त्यागी द्रव्यलिंगी साधु होय तोपण अज्ञानथी संसारमां ज रखडे छे, तेथी ते संसारतत्त्व ज छे.
ऊंधी श्रद्धावाळो आत्मा ते ज संसारतत्त्व छे. संसार शुं छे ते ओळखावे छे. जडने संसार न होय, तेमज
आत्मानो संसार जडमां न होय. संसार ते आत्मानी ऊंधी दशा छे. वस्तुस्वरूपने जे ऊधुं श्रद्धे छे एवो
मिथ्याद्रष्टि द्रव्यलिंगी साधु ते संसारतत्त्व छे. अहीं उत्कृष्ट वातमां आचार्यदेवे त्यागी द्रव्यलिंगीनी वात लीधी
छे. ऊंधी श्रद्धावाळा गृहस्थो पण संसारमां रखडे छे तेथी ते पण संसारतत्त्व छे. पण अहीं तेनी वात मुख्यपणे
न लेतां द्रव्यलिंगीनी वात करी छे, तेना पेटामां मिथ्याद्रष्टि गृहस्थ वगेरे आवी जाय छे.
दरेक तत्त्व स्वतंत्र छे, तेम यथार्थ वस्तुस्वरूप न जाणतां, अविवेकथी ‘एक तत्त्व बीजा तत्त्वनुं करे’ एम
तत्त्वने अयथार्थपणे जे माने छे ते मान्यतावाळो जीव ज संसारतत्त्व छे. कोई कहे के नवतत्त्वना नाममां तो
संसारतत्त्वनुं नाम आवतुं नथी, तो शुं ते दसमुं तत्त्व हशे? तेनुं समाधान–नवतत्त्व सिवाय दसमुं तत्त्व
जगतमां होय नहि. नवतत्त्वमां पुण्य, पाप, आस्रव अने बंध ए चार संसारतत्त्व छे. अजीवतत्त्वने संसार न
होय, तेम ज शुद्धजीवतत्त्वना स्वभावमां पण संसार न होय, अने संवर–निर्जरा के मोक्षतत्त्व ते संसार नथी.
बाकीना चार तत्त्वोनो समावेश संसारतत्त्वमां थाय छे. ते संसारतत्त्व क्यां होय? शरीर, पैसा, मकान, दुकान के
कर्म–ए तो जड छे, ते जडमां संसार न होय. आत्मानी अज्ञानदशा ते संसार छे, ते आत्मानो अरूपी विकारी
भाव छे, ते आत्मानी बहार क्यांय न होय. अज्ञानीने आत्माना स्वभावनी तो खबर नथी अने संसार शुं छे
तेनुं पण तेने भान नथी; संयोगने ज ते संसार माने छे. संयोगमां ऊभो माटे संसार छे ने संयोग छूटयो माटे
संसार छूटयो–एम अज्ञानी जुए छे, ते भ्रांति छे अने ते भ्रांति ज संसारतत्त्वनुं मूळ छे.
संसारतत्त्व एटले के चारगतिमां परिभ्रमणना मूळियानुं सेवन करनार कोण छे? तेनी वात छे. एवा
संसारतत्त्वने जाणीने ते भावनुं सेवन छोडवा माटे आ वर्णन छे. आत्मानो अने शरीरादिनो जेवो स्वतंत्र
स्वभाव छे तेवो न मानतां, एकबीजानुं कांई करे एम विपरीत माने, तेम ज परनी दयानो भाव ते पुण्य होवा
छतां तेने धर्म माने, तो ते तत्त्वनुं विपरीत ग्रहण छे. ए