Atmadharma magazine - Ank 085
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 17 of 21

background image
: १६ : आत्मधर्म : ८५
नवतत्त्वना ज्ञानमां पण जे गोटा वाळे छे ते तो हजी चैतन्यभगवानना आंगणे पण नथी आव्यो; तेने
चैतन्यभगवाननां दर्शन थाय नहि. पहेलांं रागमिश्रित विचारथी जीव, अजीवने भिन्न भिन्न मानवा ते
चैतन्य भगवाननुं आंगणुं छे, अने अभेदस्वरूपना रागरहित अनुभव सहित प्रतीति करवी ते
चैतन्यभगवाननां साक्षात् दर्शन छे, –ते निश्चयसम्यग्दर्शन छे.
नवतत्त्वमां त्रीजुं पुण्यतत्त्व छे; ते पुण्यतत्त्व जीवने शरणभूत नथी. जीवतत्त्व नित्य ध्रुवरूप छे ने
पुण्यतत्त्व क्षणिक विकार छे; पुण्यना आधारे जीवतत्त्व नथी. जीवतत्त्व अने पुण्यतत्त्व जुदा जुदा छे. त्रिकाळी
जीवतत्त्व ते पुण्यनुं कारण नथी. जो त्रिकाळी तत्त्व पुण्यनुं कारण होय तो पुण्य कदी टळे नहि. पुण्यतत्त्व पोते
जीव नथी ने जीवतत्त्व ते पुण्य नथी. एम बंने तत्त्वनुं भिन्न भिन्न स्वरूप जाणवुं जोईए.
श्रद्धा होय छे; छतां परमार्थ सम्यग्दर्शन तो एक अभेदतत्त्वनी श्रद्धाथी ज छे.
पुण्यभाव ते त्रिकाळी आत्मा नथी. पुण्यभावथी आत्मा प्रगटे एम मानो तो जीव अने पुण्यतत्त्व जुदां
रहेतां नथी. अने त्रिकाळी जीवतत्त्वने पुण्यनुं कारण मानो तो पण जीव अने पुण्यतत्त्व जुदां रहेतां नथी. दया,
पूजा, भक्ति दान, ब्रह्मचर्य वगेरे शुभपरिणाम छे ते पुण्यतत्त्व छे. ते जो आत्मा होय तो, आत्माथी तेनी
भिन्नता नक्की थई शके नहि, अने नवतत्त्व पण नहि रहे. जीवमां जीव छे ने पुण्यमां पुण्य छे, जीवमां पुण्य
नथी, पुण्यमां जीव नथी, –एम दरेक तत्त्वने पोतानुं भिन्न भिन्न लक्षण छे. एवा नवतत्त्वोने नक्की करवा ते तो
व्यवहारसम्यक्त्व छे.
पुण्यतत्त्व ते आत्मा नथी, तेम पुण्यतत्त्व ते पाप पण नथी. दया, दान, पूजा भक्ति वगेरेना भावो ते
पुण्यतत्त्व छे, ते कांई पाप नथी. छतां ते दया, पूजादिना भावने पाप मनावे तो तेने पण नवतत्त्वनी व्यवहारश्रद्धा
नथी. अंर्तस्वभावने नक्की करवा जतां वच्चे नवतत्त्वनी श्रद्धानो विकल्प आव्या विना रहेतो नथी.
श्रद्धा नथी. धर्मनो संबंध धन साथे नथी पण चैतन्य साथे छे. धन तो अजीवतत्त्व छे, शुं ते अजीवथी जीवने
धर्म थाय? धनथी धर्म तो थतो नथी, अने धनथी पुण्य पण थतुं नथी. धन ते जडतत्त्व छे ने पुण्य तो जीवनो
मंदकषायभाव छे; ते बंने भिन्न छे. आम होवा छतां जे पैसाथी धर्म माने के पैसाथी पुण्य अथवा पाप माने
तो तेने व्यवहारश्रद्धा पण साची नथी. श्री आचार्यदेव तो आत्मानी परमार्थश्रद्धा कराववा मांगे छे. हजी
नवतत्त्वने जेम छे तेम विकल्पथी माने पण नवभेदरहित एक परमार्थ आत्माने श्रद्धानो विषय न बनावे तो
ते पण मिथ्यात्वी छे.
जिनमंदिरमां भगवान पासे हाथ जोडाय, शरीर नमे के भाषा बोलाय ते जडनी क्रिया छे, ते जडनी
क्रियाने लीधे पुण्य नथी ने पुण्यथी धर्म नथी. शुभभावथी पुण्य छे ने अंतरमां परमार्थस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–
चारित्रथी धर्म छे. जैन कहेवरावे ने साधु वगेरे नाम धरावे पण हजी नवतत्त्वना भावनी तो खबर न होय,
तेने खरेखर जैन कहेवाय नहीं.
पुण्य अने पाप ते वर्तमान अटकती क्षणिक विकारी दशा छे, ने जीव तो त्रिकाळी तत्त्व छे. जडथी
पुण्यपाप नथी तेम ज त्रिकाळी जीवतत्त्व पण पुण्य–पापनुं कारण नथी. जो त्रिकाळी जीवतत्त्वमां पुण्य–पाप
होय तो ते कदी टळी शके नहि. ए रीते जीवतत्त्वमां पुण्य नथी तेम ज अजीवतत्त्वमां पण पुण्य नथी. पुण्य ते
स्वतंत्र क्षणिक विकारी दशा छे. –आ बधो शुद्धनयनो विषय नथी पण अभूतार्थनयनो विषय छे. आवी
नवतत्त्वनी श्रद्धा ते व्यवहारसम्यक्त्व छे. हजी तो धर्मना आंगणे आवतां व्यवहारश्रद्धामां पण आटली
कबूलात आवी जाय छे. पछी एक शुद्ध आत्मानी सन्मुख थईने अनुभव करतां सम्यक्प्रतीतरूप धर्म प्रगटे छे.
चोथुं पापतत्त्व छे; जगत तो पर जीव मरे तेथी, के शरीरादि जडनी क्रियाथी पाप माने छे, पण खरेखर
ते पाप नथी, पण जीवनो कलुषितभाव ते ज पाप छे. अजीवमां पाप पथी, पाप तो जीवनी क्षणिक विकारी
अवस्था छे. जीवनी अवस्थाने छोडीने क्यांय बहारमां पापतत्त्व रहेतुं नथी. पुण्य, पाप वगेरे तत्त्वो क्षणिक
अवस्थामां छे, एटले आ नवतत्त्वो वर्तमान अवस्थाद्रष्टिथी जोतां विद्यमान छे, तेने जाणवा जोईए. कुदेवादिने
मानतो होय ने कुव्यवहारमां भटकतो होय तेनाथी