दशा अखंडचैतन्य तरफ वळीने आत्मस्वभावनी निर्विकल्प श्रद्धा थवी ते निश्चयसम्यग्दर्शन छे; एवुं सम्यग्दर्शन
प्रगट थया पहेलांं नवतत्त्वनुं ज्ञान केवुं होवुं जोईए तेनी वात करे छे.
पण त्यार पहेलांं उपर प्रमाणे नव तत्त्वना विचाररूप शुभभावनी प्रवृत्ति आव्या विना रहेती नथी.
मजुरी करी करीने जीवन गाळे छे. परनुं कांई करी तो शकतो ज नथी, मफतनो परनां अभिमान करे छे. पण
आत्मा कोण छे, शुं तेनुं स्वरूप छे? ते कदी अंतरमां विचारतो नथी. हुं तो जीवतत्त्व त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप छुं, ने
शरीरादि अजीवतत्त्व छे. बंने तत्त्वो भिन्न भिन्न छे. बहारमां पैसा वगेरे वस्तुओ लेवा–देवानी के रसोई
करवानी क्रिया जडनी छे, ते हुं करी शकतो नथी. हुं तो जाणनार तत्त्व छुं. जीव अने अजीव सदाय जुदां छे. –ए
प्रकारे नवतत्त्वना यथार्थ विचार करवा ते पण हजी व्यवहारसम्यक्त्व छे; अने नवतत्त्वना भेदना विकल्परहित,
एक चैतन्यस्वरूप आत्मानी श्रद्धा करीने अनुभव करवो ते परमार्थे सम्यग्दर्शन छे. श्रेणीक राजाने आवुं
तीर्थंकर थशे. तेमने व्रतादि न हता, पण अहीं कहेवाय छे तेवुं आत्मानुं भान हतुं–सम्यग्दर्शन हतुं, तेथी ते
एकावतारी थया.
ते व्यवहारश्रद्धा परमार्थमां जतां वच्चे आव्या विना रहेती नथी. कोई ईश्वर आ जगतना कर्ता छे अथवा बधुं
थईने एक ब्रह्मस्वरूप ज छे–वगेरे कहेनारा कुतत्त्वोनी श्रद्धाथी छूटीने, श्री सर्वज्ञदेवे कहेला नव तत्त्वोनी श्रद्धा
करवी ते व्यवहारश्रद्धा छे, तेमां रागपरिणाम छे अने ते रागरहित थईने अभेद आत्मानी प्रतीति करवी ते
परमार्थ सम्यग्दर्शन छे, ने ते धर्म छे.
उत्तर:– भाई, अत्यारे ज आत्माना भान वगर तुं क्षणे क्षणे भावमरणमां मरी ज रह्यो छे; माटे ते
आत्मानी प्रतीति कर. ए चैतन्यथी प्रतीति वगर चैतन्यजीवन जीवातुं नथी ने भावमरणथी बचातुं नथी.
व्यवहारश्रद्धा आवे छे. परंतु जो ते द्वारपाळनी पासे ज रोकाई जईश तो तने चैतन्यभगवाननां दर्शन नहि
थाय. प्रथम नवतत्त्वने बराबर जाणीने, एक अभेद आत्माना स्वभाव तरफ अंतरवलण करीने प्रतीति करतां
चैतन्यप्रभुनां दर्शन थाय छे, ते सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शन वडे ए चैतन्यभगवाननां दर्शन करतां तारा भवनो
अंत आवी जशे. ए चैतन्यभगवाननां दर्शन वगर भवनो अंत आवशे नहीं.