Atmadharma magazine - Ank 085
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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कारतक : २४७७ : १५ :
शकातुं नथी, तेम ज एक अभेद आत्माना अनुभवमां ते नवतत्त्वना विकल्पो मददरूप नथी. वर्तमान ज्ञाननी
दशा अखंडचैतन्य तरफ वळीने आत्मस्वभावनी निर्विकल्प श्रद्धा थवी ते निश्चयसम्यग्दर्शन छे; एवुं सम्यग्दर्शन
प्रगट थया पहेलांं नवतत्त्वनुं ज्ञान केवुं होवुं जोईए तेनी वात करे छे.
हुं जीव छुं; शरीर वगेरे अजीव छे; दया, दान, व्रत वगेरे भावो पुण्य छे; पुण्य ते जीव नथी, जीव ते पुण्य
नथी; अजीवथी जीव जुदो छे. –ए प्रमाणे नव तत्त्वो अभूतार्थनयथी छे तेने जेम छे तेम जाणवा जोईए–आ पण
शुभभाव छे, कांई धर्म नथी. धर्म तो अंतरमां भेदनुं लक्ष छोडीने एकरूप परमार्थस्वभावना अनुभवथी थाय छे;
पण त्यार पहेलांं उपर प्रमाणे नव तत्त्वना विचाररूप शुभभावनी प्रवृत्ति आव्या विना रहेती नथी.
अहो, जीवे कदी पोतानां आत्मानी दरकार करी नथी. जेम बळद अने गधेडा जिंदगी आखी भार खेंची
खेंचीने जीवन पूरुं करे छे, तेम घणा जीवो आ मनुष्य भव पामीने पण वेपार–धंधामां ने रसोई वगेरेमां
मजुरी करी करीने जीवन गाळे छे. परनुं कांई करी तो शकतो ज नथी, मफतनो परनां अभिमान करे छे. पण
आत्मा कोण छे, शुं तेनुं स्वरूप छे? ते कदी अंतरमां विचारतो नथी. हुं तो जीवतत्त्व त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप छुं, ने
शरीरादि अजीवतत्त्व छे. बंने तत्त्वो भिन्न भिन्न छे. बहारमां पैसा वगेरे वस्तुओ लेवा–देवानी के रसोई
करवानी क्रिया जडनी छे, ते हुं करी शकतो नथी. हुं तो जाणनार तत्त्व छुं. जीव अने अजीव सदाय जुदां छे. –ए
प्रकारे नवतत्त्वना यथार्थ विचार करवा ते पण हजी व्यवहारसम्यक्त्व छे; अने नवतत्त्वना भेदना विकल्परहित,
एक चैतन्यस्वरूप आत्मानी श्रद्धा करीने अनुभव करवो ते परमार्थे सम्यग्दर्शन छे. श्रेणीक राजाने आवुं
सम्यक्त्व हतुं, तेना फळमां संसारनो नाश करीने एक भवे मुक्ति पामशे. आवती चोवीशीमां तेओ पहेलां
तीर्थंकर थशे. तेमने व्रतादि न हता, पण अहीं कहेवाय छे तेवुं आत्मानुं भान हतुं–सम्यग्दर्शन हतुं, तेथी ते
एकावतारी थया.
तीर्थ एटले तरवानो उपाय; सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते तारवानो उपाय छे. ने तेनी प्रवृत्तिमां
नवतत्त्वनी श्रद्धा ते निमित्तरूप छे. ते व्यवहारश्रद्धा कांई मूळस्वरूप नथी, –ते पोते तीर्थं के मोक्षमार्ग नथी; पण
ते व्यवहारश्रद्धा परमार्थमां जतां वच्चे आव्या विना रहेती नथी. कोई ईश्वर आ जगतना कर्ता छे अथवा बधुं
थईने एक ब्रह्मस्वरूप ज छे–वगेरे कहेनारा कुतत्त्वोनी श्रद्धाथी छूटीने, श्री सर्वज्ञदेवे कहेला नव तत्त्वोनी श्रद्धा
करवी ते व्यवहारश्रद्धा छे, तेमां रागपरिणाम छे अने ते रागरहित थईने अभेद आत्मानी प्रतीति करवी ते
परमार्थ सम्यग्दर्शन छे, ने ते धर्म छे.
प्रश्न:– एवी प्रतीति मरवा टाणे करीए तो?
उत्तर:– भाई, अत्यारे ज आत्माना भान वगर तुं क्षणे क्षणे भावमरणमां मरी ज रह्यो छे; माटे ते
भावमरणथी बचवा आत्माना स्वभावनी ओळखाण कर. श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–
“क्षण क्षण भयंकर भावमरणे
कां अहो! राची रहो?
हुं परनुं करुं, ने विकारथी लाभ थाय–एम मानीने, ते ऊंधी मान्यताथी तारो आत्मा क्षणे क्षणे भयंकर
भावमरणमां मरी रह्यो छे. ते मरणथी बचीने जो तारे आत्मानुं जीवन प्राप्त करवुं होय तो चैतन्यस्वरूप
आत्मानी प्रतीति कर. ए चैतन्यथी प्रतीति वगर चैतन्यजीवन जीवातुं नथी ने भावमरणथी बचातुं नथी.
व्यवहारसम्यक्त्वमां तो भेदथी नवतत्त्वनी श्रद्धा छे, ने अभेद परमार्थसम्यक्त्वमां तो एकरूप अभेद
आत्मानी ज प्रसिद्धि छे; ‘आत्मख्याति’ ते निश्चयसम्यक्त्वनुं लक्षण छे.
हे भाई, तारे भगवान पासे आववुं छे के नहि? तारे चैतन्यभगवानना साक्षात् दर्शन करवां छे? तो
तारे प्रथम व्यवहारश्रद्धा चोकखी करवी पडशे. चैतन्यभगवाननां दर्शन करवामां पहेलांं द्वारपाळ तरीके
व्यवहारश्रद्धा आवे छे. परंतु जो ते द्वारपाळनी पासे ज रोकाई जईश तो तने चैतन्यभगवाननां दर्शन नहि
थाय. प्रथम नवतत्त्वने बराबर जाणीने, एक अभेद आत्माना स्वभाव तरफ अंतरवलण करीने प्रतीति करतां
चैतन्यप्रभुनां दर्शन थाय छे, ते सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शन वडे ए चैतन्यभगवाननां दर्शन करतां तारा भवनो
अंत आवी जशे. ए चैतन्यभगवाननां दर्शन वगर भवनो अंत आवशे नहीं.