Atmadharma magazine - Ank 085
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : ८५
आत्मार्थीनुं पहेलुं कर्तव्य – २
चैतन्यभगवानां दर्शन करवा माटेनुं आंगणुं
केवुं होय?

निश्चय एटले के साचुं सम्यक्त्व कोने कहेवुं? –ते सम्यक्त्व अनंतकाळथी संसारमां रखडनारा अनंत
जीवोए कदी एक सेकंडमात्र पण प्राप्त कर्युं नथी. ते सम्यग्दर्शन केम थाय तेनो उपाय अहीं कहेवाय छे.
आत्मानो जेवो स्वभाव छे तेनी समजण करीने तेनुं अंतरमां घोलन करवुं ते ज सम्यग्दर्शननो उपाय छे, ने
ते प्रथम धर्म छे.
शरीरादि पर चीज हुं अने विकार ते ज हुं–एम मानीने जीव पोताना ध्रुव चैतन्यस्वभावने चूकी जाय
छे, तेने भगवान मिथ्यात्व एटले के अधर्म कहे छे. ते ऊंधी मान्यता टाळीने ध्रुव चैतन्यस्वरूप आत्मानी
प्रतीति करवी ते सम्यग्दर्शन छे. ते सम्यग्दर्शन तो कार्य छे, तेनो उपाय शुं? के स्वभाव तरफनी रुचि करीने
तेनो अंतरविचार करवो ते सम्यग्दर्शननो उपाय छे. शुद्ध आत्मस्वभावनी रुचि अने लक्ष छे ते ज
सम्यग्दर्शननो निश्चय उपाय छे.
श्री सर्वज्ञदेव कहे छे के अमे ज्ञानस्वरूप आत्मा छीए, अंर्तमुख स्वभावनो विश्वास करीने एकाग्र थतां
अमारी पूर्ण शुद्ध रागरहित केवळज्ञानदशा प्रगटी छे. तुं पण अमारा जेवो आत्मा छे, ने तारामां पण अमारा
जेटलुं ज परिपूर्ण सामर्थ्य छे. अमारी अवस्थामांथी रागादि टळी गया छे केम के ते अमारुं स्वरूप न हतुं, तो
तारी अवस्थामां जे मिथ्यात्व रागादि छे ते तारुं स्वरूप नथी, पण विकाररहित ध्रुव चैतन्यस्वरूप तुं छो;–ए
प्रमाणे तारा परमार्थस्वभावनुं अनुमान करीने तेनी रुचि कर, ते ज सम्यग्दर्शननो उपाय छे. शरीर, मन,
वाणी वगेरे तो जड छे–अजीव छे, ते आत्माथी जुदा छे–एम देखाय छे; अने क्रोधादि विकारी भावो पण नवा
नवा करे तो थाय छे, न करे तो थता नथी–एम अनुभवमां आवे छे. पूर्वे काम–क्रोधादिनी तीव्र विकारी वासना
थई, तेनो वर्तमान ज्ञानमां विचार करतां तेनुं ज्ञान थाय छे पण ते विकारीवासना वर्तमान प्रगट थती नथी,
माटे ते विकारीवासना आत्मानुं खरुं स्वरूप नथी पण ज्ञान ज आत्मानुं स्वरूप छे–एम अनुमान वडे
आत्माना स्वभावने लक्षमां लईने नक्की करवो ते सम्यग्दर्शननुं कारण छे.
कोईने तीव्र क्रोधना आवेशमां खून करवानी लागणी थई आवी अने बे–पांच खून करी नाख्या, पण
पछी ज्यारे ते लागणी ठरी गई त्यारे तेनो एकरार करे छे; ते वखते, पूर्वे खून करवामां जे क्रोधनो वेग हतो ते
वर्तमानमां आवतो नथी; केम के ते चैतन्यनो स्वभाव नथी. आ तीव्र विकारनी मोटी वात करी, ते ज प्रमाणे
बीजा पण पाप के पुण्यना जे विचार आवे ते बीजी क्षणे टळी जाय छे माटे ते मारुं स्वरूप नथी; विकारनुं ज्ञान
करनारो हुं पोते विकार वगरनो ज्ञानस्वरूप छुं–एम पहेलांं अनुमान करवुं जोईए. ते अनुमान पण यथार्थ छे,
तेमां फेर पडे नहि. एवुं स्वभावनुं अनुमान कर्युं ते सम्यग्दर्शननो उपाय छे.
अहो, अनंतकाळमां चैतन्यनुं शरण कोण छे ते जीवे कदी विचार्युं नथी. बहारमां कोई पदार्थ आत्माने
शरणरूप नथी. शरीर पण शरणरूप नथी. चैतन्यतत्त्वनुं अंर्तशरण चूकीने बहारमां शरण मान्युं, ते मरतां
अशरणपणे मरे छे. ध्रुव चैतन्यस्वरूपने जाण्या विना कोनां शरणे शांति राखे? अरे भाई! शुं आवुं ज स्वरूप
हशे? शुं कोई शरणरूप चीज नहि होय! अंतरमां चैतन्यतत्त्व शरणभूत छे तेनुं लक्ष कर.
जेणे अपूर्व धर्म करवो छे ते जीव, कुदेवादिनी मान्यता छोडीने पहेलांं तो आत्मस्वभाव जेवो छे तेवो
ज्ञानमां विकल्पसहित निर्णय करे छे, पछी अंतरस्वभावमां वळीने निर्विकल्प अनुभव प्रगटतां विशेष द्रढ
निर्णय थईने सम्यक्प्रतीति प्रगटे छे. आमां अंतरमां आत्माना विचारनी जे क्रिया छे तेनुं माहात्म्य अज्ञानीने
आवतुं नथी. पहेलांं नवतत्त्वना रागमिश्रित विचार वगर सीधुं एक आत्माना अनुभवमां आवी