Atmadharma magazine - Ank 085
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४७७ : १३:
छे. हुं परिपूर्ण परमात्मा जेवो छुं, रागादिरहित चैतन्यस्वरूप छुं, निमित्तनो मारामां अभाव छे ने रागादिनो
निषेध छे;–ए प्रमाणे पहेलांं रागसहित विचारथी जीवने माने छे, तेने पण हजी मिथ्यात्व छे. तो पछी, पहेलांं
जे व्यवहारथी–रागमिश्रित विचारथी एटलुं पण जाणतो नथी ते तो एक चैतन्यतत्त्वनो अनुभव कई रीते
करशे? वस्तुस्वरूपने समजवा तथा समजाववा जतां नवतत्त्वना भेदनो विकल्प आव्या वगर रहेतो नथी. भेद
पाड्या वगर समजाववुं कई रीते? परंतु ते भेदना आश्रये सम्यग्दर्शन थतुं नथी.
हुं जीव छुं, शरीरादि पदार्थो माराथी भिन्न अजीवतत्त्व छे. ए अजीव वस्तु तेना द्रव्य–गुण पर्यायवाळी
छे, एटले तेनी पर्याय तेना पोताथी ज थाय छे, माराथी थती नथी. शरीरनी क्रिया जीवने लीधे थती नथी–आम
जीव अने अजीव तत्त्वो जुदां छे. ए प्रमाणे ते तत्त्वोने जुदा जुदा माने त्यारे तो जीव–अजीव वगेरे तत्त्वोने
व्यवहारे मान्यां कहेवाय. नवतत्त्वोने नवपणे जुदां जुदां मानवा तेने व्यवहारश्रद्धा कहेवाय छे, पण जीव–
अजीव बधाने एकमेक मानवा अर्थात् जीव अजीवनुं करे–एम मानवुं ते तो व्यवहारश्रद्धा नथी. आत्मा
शरीरनी क्रिया करी शके छे एम जे माने तेने तो जीव–अजीवतत्त्वनी व्यवहारश्रद्धा पण नथी. नवतत्त्वोने
नवतत्त्व तरीके जुदा मानवा ते रागसहित श्रद्धाने व्यवहारसम्यक्त्व कहेवाय छे; ने नवतत्त्वना विकल्पथी पार
थईने अभेद चैतन्यतत्त्वनी अंतरद्रष्टि करे ते परमार्थश्रद्धा छे. आ अपूर्व वात छे.
प्रश्न:– पण साहेब, आत्मानी समजणमां बुद्धि परोवाती नथी?
उत्तर:– जुओ भाई, बुद्धि बीजामां तो परोवाय छे ने? तो बीजे ठेकाणे बुद्धि परोवाय ने आत्मामां
बुद्धि न परोवाय–एनुं कांई कारण? संसारना भणतर ने वेपार–धंधा वगेरेमां तो बुद्धि परोवे छे ने अंतरना
चैतन्यने समजवामां बुद्धिने परोवतो नथी, तो तेने तेमां पोतानुं हित भास्युं नथी. चैतन्यतत्त्वनी समजणमां
ज मारुं हित छे एम जो खरेखर भासे तो तेमां पोतानी बुद्धि लाग्या वगर रहे ज नहीं. अहो, आमां मारुं
कल्याण छे, आमां मारा प्रयोजननी सिद्धि छे–एम तेने चैतन्यतत्त्वनो महिमा भास्यो नथी. जो चैतन्यनी रुचि
थाय तो तेमां बुद्धि लाग्या वगर रहे नहि अने न समजाय एम बने नहि.
• सिद्धपणाना लक्षे साधकपणानी शरूआत •
आ आत्मस्वभावनी अपूर्व शरूआत समज्या विना जीव अनंतवार नवमी ग्रैवेयके
पुण्यना फळथी गयो. ‘हुं स्वाधीनस्वरूप छुं, परना आश्रय विनानो छुं’ ए भूलीने जैनना
महाव्रतादि पण कर्यां, वस्त्रना ताणा वगर नग्न दिगंबर दशा धारी उग्र शुभभाव सहित पांच
महाव्रत अनंतवार पाळ्‌यां, उत्कृष्ट तप कर्यां, कोई अग्निथी बाळी नांखे छतां जरा पण क्रोध न
करे–एवी क्षमा शुभभावथी राखी, तो पण सर्वज्ञभगवान कहे छे के एवुं अनंतवार कर्युं पण धर्म
न थयो. मात्र तेवा ऊंचा पुण्य करी अनंतवार स्वर्गमां गयो, पण हुं परथी निराळो छुं, पुण्य–
पापनी वृत्ति ऊठे तेनाथी परमार्थे जुदो ज छुं, मननी–रागनी सहायताथी हुं शुद्धदशा प्रगट करी
शकुं नहि, –एम स्वरूपनी पूर्ण स्वाधीनतानी वात बेठी नहि.
–तेथी अहीं समयसार शास्त्रनी शरूआतमां आचार्यदेव सर्व सिद्धोने भाव तथा द्रव्यस्तुति
करीने पोताना तथा परना आत्माने सिद्धसमान स्थापीने तेनुं विवेचन करे छे... कोईने आ मोटी
वात लागे, पण पूर्णस्वरूप कबूल्या विना पूर्णनी शरूआत केम थाय? लोकोने ज्ञानी कहे–तुं प्रभु
छे’ ते सांभळतां भडकी ऊठे छे, अने कहे छे के–अरे! आत्माने प्रभु केम कह्यो? ज्ञानी कहे छे के
बधा आत्मा प्रभु छे. बाह्य विषय–कषायमां जेनी द्रष्टि छे तेओ आत्माने प्रभु मानवानी ना कहे
छे. पण अहीं कहे छे के– ‘हुं सिद्ध छुं’ –एम विश्वास करीने हा पाडो. पूर्णताना लक्ष विना
वास्तविक शरूआत नथी. ‘हुं पामर छुं, ऊणो छुं’ एम मानी जे कांई करे तेने परमार्थे कांई
शरूआत नथी. ‘हुं प्रभु नथी’ एम कहेवाथी ‘ना’ मांथी हा नहि आवे अर्थात् साधकपणानी
शरूआत नहि थाय. अणशीयाने कोई दूध–साकर पाय तो पण ते नाग न थाय. तेम प्रथमथी
आत्माने हीणो मानी पूर्णतानो पुरुषार्थ करवा मागे तो न थाय. कणो अणशीया जेवडो होय छतां
फूंफाडा मारतो नाग छे, ते कडक वीर्यवाळो होय छे. नानो नाग पण फणीधर साप छे, तेम आत्मा
वर्तमान अवस्थामां नबळाईवाळो देखाय छतां स्वभावे तो सिद्ध जेवो पूर्ण छे, ते पूर्णताना लक्षे
उपडेलो साधक पूर्ण थया विना रहे नहीं. माटे श्री आचार्यदेव प्रथमथी ज पूर्ण सिद्ध साध्यपणाथी
वात शरू करे छे. केटली होंश छे!! –श्री समयसार–प्रवचनो भाग–१ पृ. २८–२९.