नवतत्त्वगतत्त्वेपि यदेकत्वं न मुंचति।।
जुदो छे. आवा शुद्ध आत्माने जोनारा ज्ञानने शुद्धनय कहे छे. भगवान! तुं अंतरथी श्रद्धा–ज्ञान करीने वस्तुने
ओळख तो खरो! नवतत्त्वनी रागमिश्रित श्रद्धा ते पुण्यबंधनुं कारण छे, धर्मनुं कारण नथी. नवतत्त्वनी श्रद्धाने
व्यवहारसम्यक्त्व कह्युं छे, ते व्यवहार सम्यक्त्व शुभराग छे, तेने खरेखर सम्यक्त्व मानवुं ते मिथ्यात्व छे.
अहो, आचार्यदेव कहे छे के एक अखंड चैतन्यस्वभावनी द्रष्टि छोडीने मात्र नवतत्त्वना भेदनो अनुभव करवो
ते पण मिथ्यात्व छे; तो पछी कुदेवादिनी श्रद्धा करे तेनी वात तो क्यां रही? तेनी तो वात अहीं लीधी नथी.
छोडती नथी एटले के धर्मीनी द्रष्टि एकरूप आत्मज्योति उपरथी खसती नथी.
आत्मानो अनुभव करतां तेमां नवतत्त्वनुं रागरहित ज्ञान समाई जाय छे.
के नहि? –एनी पण जेने शंका थाय, तो ते– ‘अहो, आ मारा आत्मानी अपूर्व वात छे, अंर्तमुहूर्तमां हुं
एकाग्र थईने आनो अनुभव प्रगट करीश–’ एवी होंश अने निःशंकता क्यांथी लावशे? अने ते निःशंकता
वगर तेनो प्रयत्न अंर्तमुख वलणमां केम वळशे? हजी शुं कह्युं ते अंतरमां पकडीने याद रहेवानी पण जेने
शंका छे तेने अंतरमां वळीने तेवो अनुभव क्यांथी थाय? हुं परिपूर्ण, केवळी भगवान जेवो छुं, एक समयमां
अनंत लोकालोकने जाणवानुं सामर्थ्य मारामां ज छे, एमां अंदर एकाग्र थाउं एटली ज वार छे, ––एम
पोतानी ताकातनो विश्वास करवो जोईए.
भूतार्थथी जाणेल जीव, अजीव वळी पुण्य, पाप ने आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष ते सम्यक्त्व छे.
अहीं नवतत्त्वोने भूतार्थनयथी जाणवा तेने सम्यक्त्व कह्युं, तेमां भूतार्थ कहेतां नवतत्त्वना भेदनुं लक्ष
रागरहित ज्ञान करी लीधुं–एटले के नवतत्त्वोमांथी एकरूप अभेद आत्माने तारवीने तेनी श्रद्धा करी, ते
खरेखर सम्यक्त्व छे.
निश्चयसम्यक्त्व कोईने थई जतुं नथी अने व्यवहारसम्यक्त्वथी पण निश्चयसम्यक्त्व थई जतुं नथी. पहेलांं
जीव–अजीवादि नवतत्त्वो शुं छे ते समजवुं जोईए. हुं जीव छुं, शरीरादि अजीव छे तेनाथी हुं भिन्न छुं.
नवतत्त्वमां पहेलुं जीवतत्त्व छे. जीव कोने कहेवो? शरीरादि जीव नथी, राग पण खरेखर जीव नथी अने अल्प
ज्ञानदशा ते पण जीवतत्त्वनुं खरुं स्वरूप नथी. जीव तो परिपूर्ण चैतन्यमय अनंतगुणनो एकरूप पिंड