Atmadharma magazine - Ank 085
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म: ८५
हवे बारमी गाथा उपरना चोथा कलशमां श्री आचार्यदेव कहे छे के–
अतः शुद्धनयायत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्तितत्।
नवतत्त्वगतत्त्वेपि यदेकत्वं न मुंचति।।
७।।
अर्थ:– त्यारबाद शुद्धनयने आधीन जे भिन्न आत्मज्योति छे ते प्रगट थाय छे के जे नवतत्त्वमां प्राप्त
थवा छतां पोताना एकपणाने छोडती नथी.
जे भिन्न आत्मज्योति हती ते ज प्रगटी छे. पर्यायनी द्रष्टिथी जोतां नवतत्त्वो देखाय छे, पण एकरूप
चैतन्यज्योति स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां तेमां नवतत्त्वना भंग नथी, ने नवतत्त्वना लक्षे थता रागथी पण ते
जुदो छे. आवा शुद्ध आत्माने जोनारा ज्ञानने शुद्धनय कहे छे. भगवान! तुं अंतरथी श्रद्धा–ज्ञान करीने वस्तुने
ओळख तो खरो! नवतत्त्वनी रागमिश्रित श्रद्धा ते पुण्यबंधनुं कारण छे, धर्मनुं कारण नथी. नवतत्त्वनी श्रद्धाने
व्यवहारसम्यक्त्व कह्युं छे, ते व्यवहार सम्यक्त्व शुभराग छे, तेने खरेखर सम्यक्त्व मानवुं ते मिथ्यात्व छे.
अहो, आचार्यदेव कहे छे के एक अखंड चैतन्यस्वभावनी द्रष्टि छोडीने मात्र नवतत्त्वना भेदनो अनुभव करवो
ते पण मिथ्यात्व छे; तो पछी कुदेवादिनी श्रद्धा करे तेनी वात तो क्यां रही? तेनी तो वात अहीं लीधी नथी.
अभेदस्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शन प्रगट थया पछी धर्मीने नवतत्त्व वगेरेना विकल्प ऊठवा छतां
तेनी द्रष्टि भिन्न एकाकार आत्मज्योति उपर छे. नवतत्त्वनुं ज्ञान करवा छतां आत्मज्योति पोताना एकपणाने
छोडती नथी एटले के धर्मीनी द्रष्टि एकरूप आत्मज्योति उपरथी खसती नथी.
जे जीव मात्र नवतत्त्वनो रागसहित विचार करे छे, ने भिन्न एकरूप आत्माने अनुभवतो नथी ते तो
मिथ्यात्वी छे. नवतत्त्वना भेदमां रहेतां एकरूप आत्मा समजातो नथी–अनुभवातो नथी, पण एकरूप
आत्मानो अनुभव करतां तेमां नवतत्त्वनुं रागरहित ज्ञान समाई जाय छे.
ऊंडे ऊंडे, आ वात मने नहि समजाय एवी बुद्धि राखीने सांभळे तो तेने समजणने यथार्थ प्रयत्न
क्यांथी ऊगे? हजी आ वात हुं अत्यारे सांभळुं छुं पण पूर्ण आत्मानी आवडी मोटी वात काले मने याद रहेशे
के नहि? –एनी पण जेने शंका थाय, तो ते– ‘अहो, आ मारा आत्मानी अपूर्व वात छे, अंर्तमुहूर्तमां हुं
एकाग्र थईने आनो अनुभव प्रगट करीश–’ एवी होंश अने निःशंकता क्यांथी लावशे? अने ते निःशंकता
वगर तेनो प्रयत्न अंर्तमुख वलणमां केम वळशे? हजी शुं कह्युं ते अंतरमां पकडीने याद रहेवानी पण जेने
शंका छे तेने अंतरमां वळीने तेवो अनुभव क्यांथी थाय? हुं परिपूर्ण, केवळी भगवान जेवो छुं, एक समयमां
अनंत लोकालोकने जाणवानुं सामर्थ्य मारामां ज छे, एमां अंदर एकाग्र थाउं एटली ज वार छे, ––एम
पोतानी ताकातनो विश्वास करवो जोईए.
नवतत्त्वना भेदनी श्रद्धा छोडीने, अखंड चैतन्यस्वभावना आश्रये रागरहित श्रद्धा करवी ते
परमार्थसम्यक्त्व छे. अखंड चैतन्यस्वभावना आश्रये नव तत्त्वनुं रागरहित ज्ञान थई जाय छे.
हवे, ए प्रमाणे भूतार्थथी एक आत्माने जाणवो ते सम्यग्दर्शन छे–एम कहे छे:– –
भूतार्थथी जाणेल जीव, अजीव वळी पुण्य, पाप ने आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष ते सम्यक्त्व छे.
अहीं नवतत्त्वोने भूतार्थनयथी जाणवा तेने सम्यक्त्व कह्युं, तेमां भूतार्थ कहेतां नवतत्त्वना भेदनुं लक्ष
छोडीने अंतर चैतन्यस्वभाव तरफ वळवानुं आव्युं. भूतार्थ एकरूप स्वभाव तरफ वळीने नवतत्त्वोनुं
रागरहित ज्ञान करी लीधुं–एटले के नवतत्त्वोमांथी एकरूप अभेद आत्माने तारवीने तेनी श्रद्धा करी, ते
खरेखर सम्यक्त्व छे.
एकला नवतत्त्वना लक्षे अटकीने नवतत्त्वनी श्रद्धा करवी तेने पण मिथ्यात्व कह्युं छे. हजी नवतत्त्व शुं छे
तेनी पण जेने खब२ नथी तेने तो व्यवहारसम्यक्त्व पण नथी. व्यवहारसम्यक्त्व वगर तो सीधुं
निश्चयसम्यक्त्व कोईने थई जतुं नथी अने व्यवहारसम्यक्त्वथी पण निश्चयसम्यक्त्व थई जतुं नथी. पहेलांं
जीव–अजीवादि नवतत्त्वो शुं छे ते समजवुं जोईए. हुं जीव छुं, शरीरादि अजीव छे तेनाथी हुं भिन्न छुं.
नवतत्त्वमां पहेलुं जीवतत्त्व छे. जीव कोने कहेवो? शरीरादि जीव नथी, राग पण खरेखर जीव नथी अने अल्प
ज्ञानदशा ते पण जीवतत्त्वनुं खरुं स्वरूप नथी. जीव तो परिपूर्ण चैतन्यमय अनंतगुणनो एकरूप पिंड