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अवस्थामां आ शरीर अने विकार ते हुं एवी मिथ्या मान्यता पूर्वक राग–द्वेषना भाव ते संसार छे, संयोगमां
संसार नथी. आत्माना पवित्र स्वरूपमांथी खसी जवुं ने विकारमां रहेवुं ते भावने संसार कहे छे. अने
आत्मामां विकाररहित पूर्ण शुद्धदशा प्रगटी होय ते आत्मा पोते मोक्षतत्त्व छे. आत्माना स्वभावने जाणीने
तेमां जे लीन थया छे एवा शुद्धोपयोगी मुनिने मोक्षतत्त्व कह्या छे. संसारतत्त्व अने मोक्षतत्त्व आत्मानी बहार
नथी, पण मिथ्यात्वभाववाळो आत्मा ते संसारतत्त्व छे, ने पवित्र निर्दोषभाववाळो आत्मा ते मोक्षतत्त्व छे. ते
मोक्षतत्त्वनुं साधन क्यांय बहारमां नथी, पण आत्मामां ज छे. ते मोक्षतत्त्वनुं वर्णन करे छे–
आसक्त नहि विषयो विषे जे, ‘शुद्ध’ भाख्या तेमने. २७३
केवा छे तेनुं वर्णन करे छे. प्रथम तो, ‘अनेकांत वडे जणातुं जे सकळ ज्ञातृतत्त्वनुं अने ज्ञेयतत्त्वनुं स्वरूप तेना
पांडित्यमां प्रवीण छे.’
शरीरने भिन्न न मानतां बे पदार्थोने एक मान्या, तेथी ते एकांत छे. शरीरनी के परनी क्रिया आत्मा करे एम
मान्युं तो तेनो अर्थ ए थयो के ते परपदार्थ परपणे छे ने मारापणे पण छे, तथा आत्मा पोतापणे छे ने
परपणे पण छे,–आवी मान्यता ते मिथ्यात्व छे; एवी मिथ्या मान्यतावाळा जीवने मोक्षनुं साधन प्रगटे नहि.
परपणे थया विना परनुं आत्मा कांई करी शके नहि. आत्मापणे जे चीज नथी एटले जे चीजमां आत्मानो
अभाव छे ते चीजमां आत्माने लईने बदलवुं थाय नहीं. आ प्रमाणे अनेकांतज्ञानवडे आत्मतत्त्वने तेम ज
बधा ज्ञेय पदार्थोने मुनिओए यथार्थ जाण्या छे. तेने जाण्या विना मोक्षनुं साधन एवो शुद्धोपयोग प्रगटे नहि.
अनेकांतथी ज्यारे समस्त स्वपर पदार्थोना स्वरूपनो यथार्थ निर्णय करे त्यारे तो संसारथी छूटवानो पहेलो
उपाय प्रगटे.
भिन्नता तथा स्वतंत्रतानो अनेकांतज्ञान वडे निर्णय करे ते ज खरुं पांडित्य छे. घणा शास्त्रो भणवा ते पांडित्य
छे एम अहीं नथी कह्युं, पण स्व–परनो विवेक प्रगट करवो ते ज साचुं पांडित्य छे; ए विवेक प्रगट कर्या विनानुं
बधुं शास्त्रभणतर मिथ्या छे.
अनादिथी करी छे, ते मिथ्यामान्यता वगर अनादिथी अज्ञानीए चलाव्युं नथी. हुं परथी जुदो छुं, मारुं तत्त्व
परना आश्रय विना ज टकी रह्युं छे–एम समजीने सम्यकत्व प्रगट थतां