: ७२ : आत्मधर्म : ८८
जीव मिथ्यात्व विना नभावे छे, सम्यकत्व प्रगट्युं एटले मिथ्यात्वभावनो अभाव थई गयो. छतां हजी
अस्थिरताने लीधे राग–द्वेषना भाव थाय. मिथ्यात्व वगर चलावे छे पण आसक्तिभाव छे ते वगर
चलावतो नथी. जो ते आसक्तिना राग–द्वेषभाव वगर पण चलावे तो चारित्रदशा प्रगट थाय. आत्मानुं
भान होवा छतां ज्यां सुधी राग–द्वेषना विकल्प होय त्यां सुधी शुद्ध उपयोग थाय नहि. जे शुद्ध
आत्मस्वरूपनुं भान थयुं छे तेना अनुभवमां ठरतां आसक्तिना रागद्वेषभाव पण छूटीने शुद्धोपयोग
प्रगटे छे, तेनुं नाम चारित्रदशा छे. आवी दशावाळा मुनिने मोक्षनुं साधनतत्त्व कहेवामां आवे छे.
शुद्धोपयोग ते मोक्षनुं साधन छे, ते शुद्धो पयोग जेने प्रगट्यो छे एवा शुद्धोपयोगी मुनिने ज अहीं
अभेदपणे मोक्षतत्त्वनुं साधन कह्युं छे.
आत्मानुं यथार्थ भान प्रगट कर्या पछी तेना विशेष अनुभवमां लीन थईने शुद्धोपयोग प्रगट
करनारा ते मोक्षमार्गी मुनिओनी दशानुं विशेष वर्णन करे छे. “अंतरंगमां चकचकाट करता चैतन्यथी
भास्वर (तेजस्वी) आत्मतत्त्वना स्वरूपने समस्त बहिरंग तथा अतरंग संगतिना परित्याग वडे
विविक्त (भिन्न) कर्युं छे, अने (तेथी) अंतःतत्त्वनी वृत्ति (–आत्मानी परिणति) स्वरूपगुप्त अने
सुषुप्तसमान (प्रशांत) रहेवाने लीधे तेओ विषयोमां जरापण आसक्ति पामता नथी.–आवी दशावाळा
सफळ महिमावंत शुद्धोपयोगी मुनिभगवंतो उग्र पुरुषार्थवडे मोक्षने साधी रह्या छे तेथी तेओ ज
मोक्षतत्त्वनुं साधन छे एम जाणवुं. बाह्यमां वस्त्रादिनो संग नथी ने अंतरमां राग–द्वेषनी वृत्तिनो संग
नथी, शुद्धात्माना अनुभवमां चैतन्यगोळो छूटो अनुभवाय छे, अने परिणति स्वरूपमां टकी गई छे,
एटले विषयोमां जरापण आसकित रही नथी, आवी मुनिदशा ते मोक्षनुं साधन छे. आमां सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्र त्रणे भेगां आवी जाय छे.
२७२ मी गाथामां श्रमणने ‘स्वरूप मंथर’ कह्या हता एटले के स्वरूपमां एवा जामी गया छे के
बहार नीकळवाना आळसु छे. अहीं २७३मी गाथामां कहे छे के शुद्धोपयोगी मुनिना आत्मानी परिणति
‘स्वरूपगुप्त अने सुषुप्त समान’ छे. तेमनी परिणति आत्मामां एवी लीन थई छे के जाणे ऊंघी गई
होय! जेम ऊंघमां पडेला माणसने बहारनुं कांई भान रहेतुं नथी, तेम मुनिनी परिणति आत्मस्वरूपमां
एवी ऊंघी गई छे–एवी लीन थई छे के बहारमां क्यांय लक्षनो विकल्प पण ऊठतो नथी. जुओ, आनुं
नाम मोक्षनुं साधन छे. आ दशाना भान विना लोको बाह्यक्रियाकांडमां ने व्रत–तपना शुभरागमां
मोक्षमार्ग मानी रह्या छे, ते यथार्थ नथी.
आत्मानो सर्वने जाणवानो स्वभाव छे एटले ते ज्ञातृतत्त्व छे, अने समस्त चीजो ते ज्ञेय छे. पुण्य–पाप
पण आत्मस्वभावथी भिन्न, ज्ञाननुं ज्ञेय छे. पुण्य–पाप बंने अशुद्ध छे, ते मारुं स्वरूप नथी–एम तेनुं पण
ज्ञान करीने, हुं तो शुद्ध ज्ञानस्वभाव छुं–एम पहेलांं श्रद्धा कर्या वगर मोक्षनुं साधन प्रगटे नहि. शरीरादि चीजो
माराथी पर छे ने मारी अवस्थामां थता पुण्यपाप ते बंने अशुद्ध भावो छे, मारो मूळ स्वभाव शुद्ध चैतन्यरूप
छे–आम सम्यक्श्रद्धा अने साचुं ज्ञान करतां अंशे शुद्धता थई, पण हजी पुण्य–पापना विकल्पो टाळीने स्वरूपमां
छे.
अज्ञानीओ शुभ उपयोगने मोक्षनुं कारण माने छे. परंतु शुभ उपयोग तो पुण्यबंधनुं कारण छे, मोक्षनुं
कारण ते नथी. मोक्षनुं कारण तो शुद्धोपयोग ज छे.
राग–द्वेषरहित ज्ञायक आत्मतत्त्वनो निर्णय करीने तेना अनुभवमां जे ठर्या छे ते मोक्षने साधनारा छे,
तेथी ते ज मोक्षतत्त्वनुं साधनतत्त्व छे. गृहस्थपणामां रहेला आत्माने आत्मभान प्रगट करीने
सम्यग्दर्शनज्ञानरूप धर्म होय, परंतु तेने चारित्रदशा होय नहि. अने शुद्धोपयोगरूप चारित्रदशा प्रगट्या वगर
मोक्षनुं साधन पूरुं थयुं कहेवाय नहीं. श्री भरत चक्रवर्ती अबजो वर्षो सुधी राजपाटमां रह्या, ते वखते तेमने
अंतरमां आत्मानुं भान हतुं. क्षायक सम्यकत्व हतुं, परंतु चारित्रदशा न हती. अस्थिरताना राग–द्वेष हता तेथी
चारित्रदशा न हती. पछी एकवार अरीसामां जोतां मोढा उपर करचली देखीने वैराग्य उत्पन्न थयो अने
राजपाटनो राग छोडीने दीक्षा लईने मुनि थया, त्यारे आत्माना अनुभवमां एकाग्र थतां शुद्धोपयोगरूप
चारित्र प्रगट्युं. आवी शुद्धोपयोगी दशा ते साक्षात् मोक्षमार्ग