Atmadharma magazine - Ank 089
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: ११२ : आत्मधर्म : ८९
मोक्षार्थीने मुक्तिनो उल्लास
* * * * *
आत्मार्थीनां परिणाम उल्लासित होय छे; केम के आत्मस्वभावने
साधीने अल्पकाळमां संसारथी मुक्त थईने तेने सिद्ध थवुं छे, तेथी
पोतानी मुक्तिनो तेने निरंतर उल्लास होय छे अने तेथी ते उल्लासित
वीर्यवान होय छे.
* * * * *
(१)
श्री परमात्म–प्रकाशमां पशुनो दाखलो आपीने कहे छे के मोक्षमां जो उत्तम सुख न होत तो पशु पण
बंधनमांथी छूटकारानी ईच्छा केम करत? जुओ, बंधनमां बंधायेला वाछरडाने पाणी पावा माटे बंधनथी छूटो
करवा मांडे त्यां ते छूटवाना हरखमां कुदाकुद करवा मांडे छे; अहा! छूटवाना टाणे ढोरनुं बच्चुं पण होंशथी कुदका
मारे छे–नाचे छे. तो अरे जीव! तुं अनादि अनादिकाळथी अज्ञानभावे आ संसारबंधनमां बंधायेलो छे, अने
हवे आ मनुष्यभवमां सत्समागमे ए संसारबंधनथी छूटवाना टाणां आव्या छे. श्री आचार्यदेव कहे छे के अमे
संसारथी छूटीने मोक्ष थाय तेवी वात संभळावीए... अने ते सांभळतां जो तने संसारथी छूटकारानी होंश न
आवे तो तुं पेला वाछरडामांथी पण जाय तेवो छे! खुल्ली हवामां फरवानुं ने छूटा पाणी पीवानुं टाणुं मळतां
छूटापणानी मोज माणवामां वाछरडाने पण केवी होंश आवे छे!! तो जे समजवाथी अनादिना संसारबंधन
छूटीने मोक्षना परम आनंदनी प्राप्ति थाय–एवी चैतन्यस्वभावनी वात ज्ञानी पासेथी सांभळतां कया आत्मार्थी
जीवने अंतरमां होंश ने उल्लास न आवे? अने जेने अंतरमां सत् समजवानो उल्लास छे तेने अल्पकाळमां
मुक्ति थया विना रहे नहीं. पहेलांं तो जीवने संसारभ्रमणमां मनुष्यभव अने सत्नुं श्रवण ज मळवुं बहु मोंघुं
छे. अने कवचित् सत्नुं श्रवण मळ्‌युं त्यारे पण जीवे अंतरमां बेसायुं नहि, तेथी ज संसारमां रखडयो. भाई!
आ तने नथी शोभतुं... आवा मोंघा अवसरे पण तुं आत्मस्वभावने नहि समज तो पछी क्यारे समजीश?
अने ए समज्या वगर तारा भवभ्रमणनो छेडो क्यांथी आवशे? माटे अंदरथी उल्लास लावीने सत्समागमे
आत्मानी साची समजण करी ले.
(२)
आत्माए अनंतकाळथी एक सेंकड पण पोताना स्वभावने लक्षमां लीधो नथी, तेथी तेनी समजण कठण
लागे छे ने शरीरादि बाह्यक्रियामां धर्म मानीने मनुष्यभव मफतमां गूमावे छे. जो आत्मस्वभावनी रुचिथी
अभ्यास करे तो तेनी समजण सहेली छे. स्वभावनी वात मोंघी न होय. दरेक आत्मामां समजवानुं सामर्थ्य
छे... पण पोतानी मुक्तिनी वात सांभळीने अंदरथी उल्लास आववो जोईए... तो झट समजाय. जेम–बळदने
ज्यारे घरेथी छोडीने खेतरमां काम करवा लई जाय त्यारे तो धीमे धीमे जाय ने जतां वार लगाडे; पण खेतरना
कामथी छूटीने घरे पाछा वळे त्यारे तो दोडता दोडता आवे... केम के तेने खबर छे के हवे कामना बंधनथी छूटीने
घरे चार पहोर सुधी शांतिथी घास खावानुं छे. तेथी तेने होंश आवे छे ने तेनी गतिमां वेग आवे छे. जुओ,
बळद जेवा प्राणीने पण छूटकारानी होंश आवे छे. तेम–आत्मा अनादिकाळथी स्वभावघरथी छूटीने संसारमां
बळदनी जेम रखडे छे... श्री गुरु तेने स्वभावघरमां पाछो वाळवानी वात संभळावे छे. पोतानी मुक्तिनो मार्ग
सांभळीने जीवने जो होंश न आवे तो ते पेला बळदमांथीये जाय? पात्र जीवने तो पोताना स्वभावनी वात
सांभळतां ज अंतरथी मुक्तिनो उल्लास आवे छे अने तेनुं परिणमन स्वभावसन्मुख वेगथी वाळे छे. जेटलो
काळ संसारमां रखडयो तेटलो काळ मोक्षनो उपाय करवामां न लागे, केमके विकार करतां स्वभाव तरफनुं वीर्य
अनंतु छे, तेथी ते अल्पकाळमां ज मोक्षने साधी ल्ये छे... पण ते माटे जीवने अंतरमां यथार्थ उल्लास आववो
जोईए.
(–पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी)
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)