Atmadharma magazine - Ank 092
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: १७६: आत्मधर्म २४७७: जेठ:
निमित्तने तद्न उथापे तो ते यथार्थ समज्यो नथी. तेम ज निमित्तनुं ज आलंबन मानीने अटके तो ते पण
स्वभावने समजतो नथी.
‘पावे नहि गुरुगम विना एही अनादि स्थित.’ –स्वभाव समजनार जीवने सद्गुरु निमित्त होय छे–ए
बताववा माटे ते वात साची छे. अने भेगुं बीजुं पडखुं ए पण छे के ‘पावे नहि चेतन विना एही अनादि
स्थित’ एटले जो निमित्तनुं लक्ष छोडीने चैतन्यस्वभाव तरफ न वळे तो पण आत्मानी साची श्रद्धाज्ञान थाय
नहि. माटे स्वभावसन्मुख वळवुं ए ज सर्वनो सार छे. स्वभावसन्मुख वळवानी पात्रतावाळा जिज्ञासु जीवने
सत्–असत् निमित्तनो विवेक वगेरे तो सहेजे होय ज छे.
जेम पतरांनो डबो अने शणनो कोथळो बंने बारदान छे, पण ऊंची जातनुं केसर भरवा माटे शणनो
कोथळो न होय पण पतरांनो डबो ज होय. छतां केसर ते डबाना आधारे रह्युं नथी. तेम सुदेव–गुरु तेम ज
कुदेव–कुगुरु ए बंने आत्माने परद्रव्य होवा छतां, तेमां सुदेवादि तो पतरांना नकोर डबा जेवा छे ने कुदेवादि तो
शणना कोथळा जेवा छे. आत्माना सम्यग्दर्शनरूपी माल भरवा माटे ते कुदेवादि निमित्त तरीके होय नहि, सुदेव–
गुरु–शास्त्र ज निमित्त तरीके होय; छतां आत्मानो धर्म ते देव–गुरु–शास्त्रना आधारे नथी. ए तो बारदान
जेवां छे, ते बारदान पोते सम्यक्श्रद्धा नथी. पण श्रद्धा ते बारदान वगर होती नथी. जेम केसर डबा वगर रहेतुं
नथी पण डबो पोते केसर नथी, केसर खूटे तो तेने बदले डबो काममां न आवे, तेम प्रथम साचा देव–गुरु–
शास्त्रनी श्रद्धा वगर सम्यग्दर्शन होतुं नथी पण ते देव–गुरु–शास्त्र तरफनुं वलण पोते सम्यग्दर्शन नथी. अने
सम्यग्दर्शनमां देव–गुरु–शास्त्रनो शुभराग काम आवे नहि; केम के सुदेवादि पण आ आत्माथी पर द्रव्य छे. माटे
कुदेवादि तेम ज सुदेवादि ए बधाने आत्माथी भिन्न परद्रव्य जाणीने, ध्रुव चैतन्यतत्त्वनुं आलंबन करतां
सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र प्रगटे छे. साचा देव–गुरु–शास्त्रनी ओळखाण तो पहेलांं होय ज, पण अहीं ते
बारदाननी वात गौण छे; अहीं तो तेनुं पण लक्ष छोडावीने पोताना अभेद चैतन्यमात्र स्वभावनी श्रद्धा
करवानी वात छे, केम के ते ज अनंतकाळमां कर्युं नथी. अनंत वार भगवाननो दिव्यध्वनि सांभळ्‌यो पण
पोताना आत्मा तरफ न वळ्‌यो, तेथी कल्याण थयुं नथी. माटे पराश्रय छोडावीने स्वाश्रय कराववा श्री
आचार्यदेव कहे छे के हे जीव! आ एक ध्रुव चैतन्यस्वभाव सिवाय समस्त परद्रव्योनुं आलंबन आत्माने
अशुद्धतानुं कारण छे एम तुं जाण, अने ते समस्त परद्रव्यनुं आलंबन छोडीने तारा शुद्ध आत्मस्वभावनुं ज
आलंबन कर. पहेलांं श्रद्धामां तेनुं आलंबन करतां सम्यग्दर्शन थाय छे ने पछी स्थिरता रूपे तेनुं आलंबन
करतां समयक्चारित्र थाय छे. ए सिवाय तीर्थंकरभगवानना दिव्यध्वनिनुं आलंबन पण तारा आत्माने
मलिनतानुं कारण छे. ध्रुव आत्मा सिवाय कोई पण परद्रव्य सामे जोतां विकार थाय छे.–आम जाणीने जे जीव
पोताना श्रद्धा–ज्ञानने चैतन्यस्वभावमां एकाग्र करे छे तेनो मोह क्षय थई जाय छे. श्रद्धाने चैतन्य उपर मूकवी
ते ज मोहक्षयनो मार्ग छे.
ए प्रमाणे जेणे वर्तमान मां ध्रुव परिपूर्ण चैतन्यस्वरूपनी श्रद्धा करी ते विशुद्ध आत्मा थयो. हजी
केवळज्ञान थयुं नथी पण सम्यग्दर्शन थयुं छे, त्यां ज तेने विशुद्ध आत्मा कह्यो छे. ते विशुद्ध आत्माने पोताना
अनंतशक्तिवाळा चिन्मात्र परम आत्मानुं एकाग्र संचेतनलक्षण ध्यान होय छे. आवुं चैतन्य परमात्मानुं
ध्यान ते ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनो उपाय छे.
[८] आत्मानी शुद्धता कोने थाय?
आत्मानो त्रिकाळ ध्रुव चैतन्यस्वभाव छे, ने ते स्वभावने जणावनार साचा देव–गुरु–शास्त्र जगतमां
त्रिकाळ जयवंत वर्ते छे; पण ते माराथी पर छे, तेथी तेना लक्षे पण मारुं कल्याण थतुं नथी. प्रथम तो ज्यां
सुधी साचा देव–गुरु–शास्त्रने ओळखीने न माने त्यां सुधी स्वभाव तरफ वळवानुं बनतुं नथी अने साचा देव–
गुरु–शास्त्रने मानवा छतां जो स्वभाव तरफ न वळे तो पण कल्याण थतुं नथी.
आत्मा सिवाय जे कोई परद्रव्य छे तेना लक्षे–तेना आलंबने पर्यायमां विकार थाय छे ने ध्रुव चैतन्यना
आलंबने ज शुद्धता थाय छे–आम स्पष्टपणे स्व–परनो विभाग जे न जणावे ते तो परलक्ष छोडीने स्वभावनुं
ध्यान करवानुं बतावी शकता नथी, माटे ते तो बधा खोटा देव, खोटा गुरु ने खोटां शास्त्र छे.