Atmadharma magazine - Ank 093
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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अषाढ: २४७७ : १८९:
‘जे शुध्ध जाणे आत्मने ते शुध्ध आत्म ज मेळवे’
वीर सं. २४७प ना वैशाख वद १४ ना रोज लाठीमां
श्री प्रवचनसार गाथा १९४ उपर पू. गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन
[गाथा १९४ नी टीका]
[१प] शुद्धात्माने जाणे तेने शुद्धता थाय
‘आयथोक्त विधि वडे शुद्धात्माने जे ध्रुव जाणे छे, तेने तेमां ज प्रवृत्ति द्वारा शुद्धात्मत्व होय छे;’
आत्मामां सारुं केम थाय ने नसारुं–अठीक केम टळे तेनी आ वात छे. सारुं करवुं, सुख, धर्म, कल्याण ए बधुं
एक ज छे. जीव अज्ञानभावे अध्रुव एवा विकारने तथा संयोगोने पोतानुं स्वरूप मानतो हतो ते अधर्म हतो.
हवे, परद्रव्यनुं आलंबन अशुद्धतानुं कारण छे ने स्वद्रव्यनुं आलंबन शुद्धतानुं कारण छे–एम पूर्वे कहेला विधि
वडे शुद्धात्माने जाण्यो ते धर्म छे. मूळ सूत्रमां ‘
जो एवं जाणित्ता’ एम कह्युं छे तेमांथी श्री अमृतचंद्र आचार्यदेवे
टीकामां आ रहस्य खोल्युं छे.
मारामां पर वस्तुनो अभाव छे ने रागद्वेष पण मारा कल्याणनुं कारण नथी, ए बधा अध्रुव पदार्थो छे
ते मने शरणरूप नथी. मारो उपयोगस्वरूप आत्मा ध्रुव छे ते ज मने शरणरूप छे;–आ प्रमाणे जे पोताना शुद्ध
आत्माने जाणे छे तेने तेना आश्रये शुद्धता प्रगटे छे. पहेलांं मलिन भावोने पोतानुं स्वरूप मानतो त्यारे
शुद्धता प्रगटती न हती, हवे ते मान्यता फेरवीने शुद्ध आत्माने जाण्यो एटले शुद्धता प्रगटी.
[१६] आ वात कोने समजावे छे?
पहेलांं अनादिथी आत्माने अशुद्ध मानतो हतो, ते मिथ्या मान्यता सर्वथा असत् (अर्थात् सर्वथा
अभावरूप) नथी, पण अज्ञानीनी अवस्थामां ते मिथ्यामान्यता थाय छे, ते एक समयपूरती सत् (–भावरूप)
छे. जो ऊंधी मान्यता आत्मामां सर्वथा थती ज न होय तो शुद्धात्माने समजीने ते टाळवानुं पण रहेतुं नथी,
एटले आत्माने समजवानो उपदेश आपवानुं पण रहेतुं नथी. अनादिथी आत्माने क्षणिक विकार जेटलो मान्यो
छे ते मिथ्या मान्यता छोडाववा श्री आचार्यदेव समजावे छे के आत्मानो स्वभाव त्रिकाळ शुद्ध उपयोगस्वरूप
ध्रुव छे, तेनी श्रद्धा करो.
[१७] ‘राग वखते शुद्ध आत्माना श्रद्धा–ज्ञान केम थई शके? ’ श्रद्धा, ज्ञान, चारित्रनुं
भिन्न भिन्न कार्य.
प्रश्न:– आत्मामां राग–द्वेष थता होवा छतां ते राग–द्वेष हुं नहि–एम ते क्षणे ज केम मान्यता थाय?
राग–द्वेष वखते ज राग–द्वेष रहित ज्ञानस्वभावनी श्रद्धा कई रीते थई शके?
उत्तर:– राग–द्वेष थता देखाय छे ते तो पर्यायद्रष्टि छे, ते ज वखते जो पर्यायद्रष्टि गौण करीने स्वभावनी
द्रष्टिथी जुओ तो आत्मानो स्वभाव रागरहित ज छे, –एनी श्रद्धा ने अनुभव थाय छे. राग होवा छतां शुद्ध
आत्मा ते रागथी रहित छे, –एम ज्ञानवडे शुद्धआत्मा जणाय छे. आत्मामां एक ज गुण नथी पण श्रद्धा–ज्ञान–
चारित्र वगेरे अनंत गुणो छे; राग–द्वेष थाय ते चारित्रगुणनुं विकारी परिणमन छे ने शुद्धात्माने मानवो ते
श्रद्धागुणनुं निर्मळ परिणमन छे तथा शुद्धात्माने जाणवो ते ज्ञानगुणनुं निर्मळ परिणमन छे. ए रीते दरेक गुणनुं
परिणमन भिन्न भिन्न कार्य करे छे. चारित्रना परिणमनमां विकारदशा होवा छतां, श्रद्धाज्ञान तेमां न वळतां
त्रिकाळी शुद्ध स्वभावमां वळ्‌या, श्रद्धानी पर्याये विकाररहित आखा शुद्ध आत्मामां वळीने तेने मान्यो छे अने
ज्ञाननी पर्याय पण चारित्रना विकारनो नकार करीने स्वभावमां वळी छे एटले तेणे पण विकाररहित शुद्ध
आत्माने जाण्यो छे. आ रीते, चारित्रनी पर्यायमां राग–द्वेष होवा छतां श्रद्धा–ज्ञान स्व तरफ वळतां शुद्ध आत्मानी
श्रद्धा तथा ज्ञान थाय छे. राग वखते जो रागरहित शुद्ध आत्मानुं भान थई शकतुं न होय तो कोई जीवने चोथुं–
पांचमुं–छठ्ठुं वगेरे गुणस्थान के साधकदशा ज प्रगटी शके नहि अने साधक भाव वगर मोक्षनो पण अभाव ठरे.