मुख्यता छे माटे ते नवतत्त्वो अभूतार्थ छे. ‘अभूतार्थ’ कहेतां ते नवतत्त्वोना विकल्प अभेद स्वभावनी द्रष्टिमां
उत्पन्न ज थता नथी.
बहारमां–देव, गुरु, शास्त्र, के स्त्री, लक्ष्मी, शरीर वगेरेमां सुखशांति शोधवाथी ते मळे तेम नथी. तारे सुख–
शांति जोईता होय, सम्यग्दर्शन जोईतुं होय, सत्य जोईतुं होय, आत्मसाक्षात्कार जोईतो होय तो कायमी चिदानंद
स्वभावमां ज तेने शोध, अंतर स्वभावमां शोध्ये ज ते मळे तेम छे. सत्समागमे नव तत्त्वोने जाणीने
अंतरंगमां भूतार्थ चैतन्यस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां सम्यग्दर्शन, सुख–शांति, सत्य ने
आत्मसाक्षात्कार थाय छे.
आवो आत्मा ते सम्यग्दर्शननो विषय छे अर्थात् सम्यग्दर्शन पोताना आत्माने तेवो कबूले छे. सम्यग्दर्शन थतां
पोताना सिद्ध समान आत्मानुं संवेदन थाय छे–अनुभव थाय छे. सम्यग्दर्शननो विषय एकलो आत्मा छे,
नवतत्वना भेदो सम्यग्दर्शननो विषय छे ज नहि. नवतत्वो ते तो भेदो सम्यग्दर्शन माटेनुं बारदान छे.
बारदान उपरथी मालनुं अनुमान थाय के आने केवो माल लेवो छे? जेम कोई फाट्योतूट्यो काळो कोथळो लईने
बजारमां जतो होय तो अनुमान थाय के आ माणस कांई केसर लेवा नथी जतो पण कोलसा लेवा जतो हशे.
अने कोई सारी काचनी बरणी लईने बजारमां जतो होय तो अनुमान थाय के आ दाणा के कोलसा लेवा नथी
जतो पण केसर वगेरे उत्तम चीज लेवा जाय छे. तेम जे जीव कुदेव–कुगुरुओने पोषी रह्यो छे एटले जेने
बारदान तरीके ज कुदेव–कुगुरु छे, तो अनुमान थाय छे के ते जीव आत्मानो धर्म लेवा नथी नीकळ्यो पण
विषयकषाय पोषवा नीकळ्यो छे; जेनी पासे नवतत्त्वनी श्रद्धारूप बारदान नथी तो एम समजवुं के ते जीव
आत्मानी श्रद्धारूपी माल लेवा नीकळ्यो नथी पण संसारमां रखडवानो माल लेवा नीकळ्यो छे. जे जीव शुद्ध
आत्मानी श्रद्धारूपी माल लेवा नीकळ्यो छे. होय तेनी पासे साचा देव–गुरुए कहेला नवतत्त्वोनी श्रद्धा ज
बारदानरूपे होय. पहेलांं नवतत्त्वोने कबूल्या पछी तेना भेदनुं लक्ष छोडीने शुद्धनयना अवलंबनथी अभेद
आत्मानो अनुभव करतां धर्म प्रगटे छे. पण जे कुतत्त्वोने माने छे ने जेने नवतत्त्वोनुं भान नथी तेने तो
चैतन्यनो अनुभव थवानी योग्यता ज नथी. शरीरनी क्रियाथी के पूजा–दया वगेरेथी जे धर्म मनावे ते शणनो
कोथळो लईने माल लेवा नीकळ्यो छे, ते कोथळामां सम्यग्दर्शनरूपी माल नहि रहे. हजी तो जीव अने शरीर
भेगां थईने बोलवा वगेरेनुं कार्य करे छे एम जे माने तेणे तो व्यवहारु नवतत्त्वोने पण जाण्यां नथी, तेने तो
यथार्थ पुण्यप्राप्ति पण होती नथी. अने नवतत्त्व मानीने त्यां ज अटकी रहे तो ते पण मात्र पुण्यबंधमां अटकी
रहे छे, तेने धर्मनी प्राप्ति थती नथी. नवतत्त्वने मान्या पछी अभेद एक चैतन्यस्वभावनी समीप जईने
अनुभव करे तेने अपूर्व धर्म प्रगटे छे.
भंग–भेदनो विकल्प ऊभो थतो नथी पण एक शुद्ध चैतन्य आत्मा ज अनुभवाय छे, तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे,
तेनुं ज नाम आत्मसाक्षात्कार छे ने ते ज धर्मनी पहेली भूमिका छे.
व्यवहारद्रष्टिमां नवतत्त्वो छे पण स्वभावद्रष्टिमां नवतत्त्वो नथी. स्वभावद्रष्टिथी एवो अनुभव करवो ते ज
धर्म छे. *