Atmadharma magazine - Ank 093
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 8 of 21

background image
अषाढ: २४७७ : १८७ :
वळी जेम एकला पाणीमां मीठुं, खाटुं के खारुं एवा भेदो पडता नथी; मीठुं, खाटुं के खारुं एवा जे भेदो
पडे छे ते साकर, लींबु के नीमक वगेरे परनिमित्तना संगनी अपेक्षाए पडे छे, निमित्तना संगनी अपेक्षाए
जोतां पाणीमां ते भेदो भूतार्थ छे. पण एकला पाणीना स्वभावने जोतां तेमां मीठुं, खाटुं के खारुं एवा भेदो
पडता नथी तेथी ते भेदो अभूतार्थ छे. तेम आत्मामां एकला स्वभावथी जोतां तो तेमां भेद नथी, पण जड
कर्मना संयोगनी अपेक्षाथी जोतां आत्मानी पर्यायमां बंध, मोक्ष वगेरे सात प्रकार पडे छे, पर्यायद्रष्टिथी ते भेदो
भूतार्थ छे. अने जो एकला आत्माना त्रिकाळी स्वभावनी द्रष्टिथी अनुभव करवामां आवे तो तेमां बंध, मोक्ष
वगेरे सात प्रकारो नथी तेथी ते अभूतार्थ छे. एटले स्वभावद्रष्टिथी तो नवतत्त्वोमां एक भूतार्थ जीव ज
प्रकाशमान छे, –तेमां एक अभेद जीवनो ज अनुभव छे, ने ते ज परमार्थ सम्यग्दर्शननो विषय छे. आवुं
समज्या वगर अनंत काळमां जे कर्युं तेनाथी परिभ्रमण ज थयुं छे ने एक भव पण घट्यो नथी. आ अपूर्व
समजण करवी ते ज भवभ्रमणथी बचवानो उपाय छे.
नव तत्त्वो क्यां रहे छे? के जीव अने अजीव तो स्वतंत्र तत्त्वो छे, ने तेमना संबंधथी सात तत्त्वो थाय
छे, तेमां जीवना साततत्त्वो जीवनी अवस्थामां रहे छे ने अजीवना सात तत्त्वो अजीवनी अवस्थामां रहे छे.
पण अज्ञानीने ते बंनेनी भिन्नतानुं भान नथी एटले जाणे के जीव अने अजीव बंने भेगां थईने परिणमता
होय एम तेने लागे छे. अज्ञानी भिन्न अखंड चैतन्यतत्त्वने चूकीने, जड अने चेतनने एक माने छे अने तेथी
पर्यायबुद्धिमां ते नव तत्त्वोनो ज भूतार्थपणे अनुभव अनादिथी करी रह्यो छे पण स्वभाव तरफ वळीने
एकरूप स्वभावनो अनुभव करतो नथी. मुक्तस्वभावनी द्रष्टिए तो आत्मा एकरूप छे तेमां नवतत्त्वो नथी,
पण बाह्य संयोगी द्रष्टिथी–वर्तमानद्रष्टिथी–व्यवहारद्रष्टिथी जुओ तो नवतत्त्वो भूतार्थ देखाय छे. अने जो
वर्तमान पर्यायने स्वभावमां एकाग्र करीने वर्तमानमां स्वभावने जुओ तो नवतत्त्वो अभूतार्थ छे, ने एकलो
ज्ञायक आत्मा ज अनुभवमां आवे छे.
भगवान आचार्यदेव कहे छे के अखंड ज्ञायकवस्तुनी द्रष्टिए तो आत्मामां एकपणुं ज छे ने तेना आश्रये
एकपणानी ज उत्पत्ति थाय छे. जो के पर्यायमां निर्मळताना प्रकारो पडे छे पण ते पर्याय अभेदआत्मामां ज
एकाग्र थाय छे, माटे अभेदआत्मानो ज अनुभव छे.
अज्ञानीने जड–चेतननी एकत्त्वबुद्धिथी अनादिथी नवतत्त्वो उपर ज द्रष्टि छे, जडना संगथी भिन्न,
एकला चैतन्यतत्त्वनी तेने खबर नथी. अहो, मारामां अनंत गुणो होवा छतां हुं अभेदस्वभावी एक वस्तु छुं.
ज्ञायकस्वरूप छुं–आवो अनुभव करवो ते परमार्थसम्यग्दर्शन छे. अभेद आत्माना अनुभवमां ‘हुं ज्ञान छुं’
एवा गुणभेदना विकल्पनो पण अवकाश नथी तो पछी नव तत्त्वना विकल्प तो क्यांथी होय? हजी नवतत्त्वोने
पण जे न माने तेने तो व्यवहारधर्म पण होय नहि. तेम ज परना संयोगनी समीप जईने नवतत्त्वोनो
भूतार्थपणे अनुभव करवो–अर्थात् एक जीवने नवतत्त्वपणे अनुभववो–ते पण हजी सम्यग्दर्शन नथी.
सम्यग्दर्शन कई रीते छे ते हवे कहे छे: अंतरमां चैतन्यस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां ते नवतत्वो
अभूतार्थ छे ने एक परम पारिणामिक ज्ञायक आत्मा ज ‘भूतार्थपणे’ अनुभवाय छे; एवो अनुभव करवो ते
ज सम्यग्दर्शन छे. अभेद स्वभावनी प्रधानताथी आत्मानो अनुभव करतां ते ज्ञायकमूर्ति भगवान तो एक ज
छे, एकपणुं छोडीने ते नव प्रकारपणे थयेलो नथी.
अहो, आवी सरस वात! पात्र थईने समजे तो न्याल थई जाय तेवुं छे. पहेलांं सत्समागमे आ वात काने
पडे पछी अंतरमां विचार करीने निर्णय करे, तो तेनो अनुभव थाय. ज्यां मुख्यता चैतन्य तरफनी थई त्यां
अभेद चैतन्य ज द्रष्टिमां रहे छे, नव भेदनो विकल्प आवे तेनी मुख्यता थती नथी, माटे ते अभूतार्थ छे. हुं–जीव
चैतन्य परिपूर्ण छुं–एकरूप छुं, एवा स्वभावनी द्रष्टिमां एकतानी ज मुख्यता छे ने तेमां नवतत्त्वोनी अनेकता
गौण थई जाय छे, तेथी शुद्धनयमां नवतत्त्वो अभूतार्थ छे. आत्माना अभेद स्वभावनी द्रष्टि छोडीने पर्यायमां
पर संगनी अपेक्षाथी जोतां नवतत्त्वो भूतार्थ छे पण ज्यां शुद्धनयथी भेदनुं लक्ष छूटीने अभेद स्वभावनी
मुख्यतामां वळ्‌यो त्यां भेदरूप नवतत्त्वोनो अनुभव नथी माटे ते अभूतार्थ छे, ने एक शुद्ध आत्मा ज