बतावे ते बधा कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्र छे. संवर अने निर्जराभाव ते निर्मळ दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग छे,
साधकभाव छे. आचार्य, उपाध्याय अने साधु ते गुरु छे, तेमनुं तथा ज्ञानी धर्मात्माओनुं स्वरूप संवर–
निर्जरामां आवी जाय छे. मोक्ष ते आत्मानी पूर्ण निर्मळदशा छे, अर्हंत अने सिद्ध परमात्मा सर्वज्ञ वीतरागदेव
छे तेमनुं स्वरूप मोक्षतत्त्वमां आवी जाय छे. ए रीते नवतत्त्वमां पंचपरमेष्ठी वगेरेनुं स्वरूप पण आवी जाय
छे. नवतत्त्वमां आखा विश्वना बधा पदार्थो आवी जाय छे. नवतत्त्व सिवाय बीजुं कोई तत्त्व जगतमां नथी.
जेम भंगीयाना आंगणे ऊभेलो नागरना घरमां प्रवेशी न शके पण नागरना आंगणे ऊभेलो ज नागरना
घरमां प्रवेश करी शके छे. तेम आत्माना अनुभवमां जवा माटे नवतत्त्वरूप आंगणुं समजवुं.
सम्यग्दर्शनना निमित्त तरीके जे पंचेन्द्रियपणुं, देव–गुरु–शास्त्र वगेरेनुं वर्णन आवे छे ते तो बाह्य संयोगरूप
निमित्तो छे, ते तो स्वयं होय छे, तेमां जीवनो वर्तमान प्रयत्न नथी. ने आ नवतत्त्वनी श्रद्धारूप व्यवहार तो
पोताना वर्तमान प्रयत्नथी थाय छे, तेथी आ आध्यात्मग्रंथमां सम्यग्दर्शनना निमित्त तरीके तेनी ज वात लीधी
छे. आ समयसारमां घणी गूढता भरी छे.
अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे; (जीवना एकाकार स्वरूपमां तेओ नथी;) तेथी आ नवतत्त्वोमां भूतार्थनयथी एक
जीव ज प्रकाशमान छे.’ अज्ञानीने नवतत्त्वोमां जीव अने अजीव एक थईने परिणमतां होय–एम स्थूलद्रष्टिथी
लागे छे, पण ज्ञानी तो नवे तत्त्वमां जीव अने अजीवनुं जुदुं जुदुं परिणमन छे एम जाणे छे. ज्ञानी
अंर्तद्रष्टिथी जीव–अजीवने जुदा जुदा परिणमता देखे छे–ए वात पछी लेशे.
आत्मा अने कर्मनी अवस्थानो एकपणे अनुभव करतां तो नवतत्त्वो भूतार्थ छे–विद्यमान छे, व्यवहारनयथी
जोतां पर्यायमां नवतत्त्वना विकल्पो थाय छे; पण जेने एकला नवतत्त्वोनुं भूतार्थपणुं ज भासे छे ने एकरूप
चैतन्यस्वभावनुं भूतार्थपणुं नथी भासतुं ते मिथ्याद्रष्टि छे. जीव–पुद्गलना संबंधनुं लक्ष छोडीने, एकला शुद्ध
जीवतत्त्वने ज लक्षमां लईने अनुभव करतां एकलो भगवान आत्मा ज शुद्ध जीवपणे प्रकाशमान छे ने
नवतत्त्वो अभूतार्थ छे; एवो अनुभव करवो ते सम्यग्दर्शन छे. अभेद आत्मानी श्रद्धा कर्या पहेलांं एटले के
धर्मनी पहेली दशा थतां पहेलांं जिज्ञासु जीवने नवतत्त्वनुं ज्ञान निमित्तरूपे होय छे. नवतत्त्वो सर्वथा छे ज
नहि–एम नथी.
तेना प्रवाहमां भंग पडे छे, तेम जो कर्म साथेना संबंधना लक्षथी जीवनो विचार करो तो नवतत्त्वना भेद
विचारमां आवे छे, पण ते निमित्तनुं लक्ष छोडीने एकला चैतन्यस्वभावने ज द्रष्टिमां ल्यो तो तेमां भंगभेद
पडता नथी, ते एक ज प्रकारनो अनुभवमां आवे छे.