Atmadharma magazine - Ank 093
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: १८६: आत्मधर्म: ९३
साचा नवतत्त्वनी ओळखाणमां सुदेव–गुरु–शास्त्रनी अने कुदेवादिनी ओळखाण पण आवी जाय छे.
आस्रव अने बंधतत्त्वनी ओळखाणमां कुदेवादिनी ओळखाण आवी जाय छे. नवतत्त्वना स्वरूपने विपरीतपणे
बतावे ते बधा कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्र छे. संवर अने निर्जराभाव ते निर्मळ दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग छे,
साधकभाव छे. आचार्य, उपाध्याय अने साधु ते गुरु छे, तेमनुं तथा ज्ञानी धर्मात्माओनुं स्वरूप संवर–
निर्जरामां आवी जाय छे. मोक्ष ते आत्मानी पूर्ण निर्मळदशा छे, अर्हंत अने सिद्ध परमात्मा सर्वज्ञ वीतरागदेव
छे तेमनुं स्वरूप मोक्षतत्त्वमां आवी जाय छे. ए रीते नवतत्त्वमां पंचपरमेष्ठी वगेरेनुं स्वरूप पण आवी जाय
छे. नवतत्त्वमां आखा विश्वना बधा पदार्थो आवी जाय छे. नवतत्त्व सिवाय बीजुं कोई तत्त्व जगतमां नथी.
अहीं कहेलो व्यवहार ते सम्यग्दर्शननुं आंगणुं छे. कुदेवादिना आंगणे ऊभो होय ते तो अंतरमां
आत्माना घरमां प्रवेशी शकतो नथी. आत्माना घरमां प्रवेशनारने नवतत्त्वनी श्रद्धारूप आंगणुं वच्चे आवे छे.
जेम भंगीयाना आंगणे ऊभेलो नागरना घरमां प्रवेशी न शके पण नागरना आंगणे ऊभेलो ज नागरना
घरमां प्रवेश करी शके छे. तेम आत्माना अनुभवमां जवा माटे नवतत्त्वरूप आंगणुं समजवुं.
अहीं आचार्यदेवे परमार्थ आत्माना अनुभवना निमित्त तरीके नवतत्त्वना विकल्परूप व्यवहार वर्णव्यो
छे. आ निमित्त ते पोतानी पर्याय ज छे. अनुभव पहेलांं वच्चे एवी पर्याय थया वगर रहेती नथी. अने
सम्यग्दर्शनना निमित्त तरीके जे पंचेन्द्रियपणुं, देव–गुरु–शास्त्र वगेरेनुं वर्णन आवे छे ते तो बाह्य संयोगरूप
निमित्तो छे, ते तो स्वयं होय छे, तेमां जीवनो वर्तमान प्रयत्न नथी. ने आ नवतत्त्वनी श्रद्धारूप व्यवहार तो
पोताना वर्तमान प्रयत्नथी थाय छे, तेथी आ आध्यात्मग्रंथमां सम्यग्दर्शनना निमित्त तरीके तेनी ज वात लीधी
छे. आ समयसारमां घणी गूढता भरी छे.
× × ×
हवे, नवतत्त्वोने जाणीने परमार्थ सम्यग्दर्शन प्रगट करवा माटे शुं करवुं ते विषे आचार्यदेव विशेष स्पष्ट
खुलासो करे छे; पहेलांं सामान्यपणे वात करी, हवे ते वात विशेषपणे समजावे छे––
‘बाह्यद्रष्टिथी जोईए तो:– जीव–पुद्गलनी अनादि बंध पर्यायनी समीप जईने एकपणे अनुभव करतां
नवतत्त्वो भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे अने एक जीवद्रव्यना स्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां तेओ
अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे; (जीवना एकाकार स्वरूपमां तेओ नथी;) तेथी आ नवतत्त्वोमां भूतार्थनयथी एक
जीव ज प्रकाशमान छे.’ अज्ञानीने नवतत्त्वोमां जीव अने अजीव एक थईने परिणमतां होय–एम स्थूलद्रष्टिथी
लागे छे, पण ज्ञानी तो नवे तत्त्वमां जीव अने अजीवनुं जुदुं जुदुं परिणमन छे एम जाणे छे. ज्ञानी
अंर्तद्रष्टिथी जीव–अजीवने जुदा जुदा परिणमता देखे छे–ए वात पछी लेशे.
जेने जीव–अजीवनुं भेदज्ञान नथी एवो अज्ञानी जीव नवतत्त्वना विकल्पथी जीव–पुद्गलना बंधपर्यायनी
समीप जईने अनुभव करे छे, अखंड चिदानंद चैतन्यनी एकाताने चूकीने बाह्य संयोगने जुए छे, बाह्य लक्षथी
आत्मा अने कर्मनी अवस्थानो एकपणे अनुभव करतां तो नवतत्त्वो भूतार्थ छे–विद्यमान छे, व्यवहारनयथी
जोतां पर्यायमां नवतत्त्वना विकल्पो थाय छे; पण जेने एकला नवतत्त्वोनुं भूतार्थपणुं ज भासे छे ने एकरूप
चैतन्यस्वभावनुं भूतार्थपणुं नथी भासतुं ते मिथ्याद्रष्टि छे. जीव–पुद्गलना संबंधनुं लक्ष छोडीने, एकला शुद्ध
जीवतत्त्वने ज लक्षमां लईने अनुभव करतां एकलो भगवान आत्मा ज शुद्ध जीवपणे प्रकाशमान छे ने
नवतत्त्वो अभूतार्थ छे; एवो अनुभव करवो ते सम्यग्दर्शन छे. अभेद आत्मानी श्रद्धा कर्या पहेलांं एटले के
धर्मनी पहेली दशा थतां पहेलांं जिज्ञासु जीवने नवतत्त्वनुं ज्ञान निमित्तरूपे होय छे. नवतत्त्वो सर्वथा छे ज
नहि–एम नथी.
आत्मा अने कर्मना संबंधथी थतां नवतत्त्वोनी द्रष्टि छोडीने एकला ज्ञायकनी द्रष्टिथी स्वभावसन्मुख
जईने अनुभव करवो ते सम्यग्दर्शन छे. जेम एकला पाणीना प्रवाहमां भंग न पडे पण वच्चे नालांना निमित्ते
तेना प्रवाहमां भंग पडे छे, तेम जो कर्म साथेना संबंधना लक्षथी जीवनो विचार करो तो नवतत्त्वना भेद
विचारमां आवे छे, पण ते निमित्तनुं लक्ष छोडीने एकला चैतन्यस्वभावने ज द्रष्टिमां ल्यो तो तेमां भंगभेद
पडता नथी, ते एक ज प्रकारनो अनुभवमां आवे छे.