Atmadharma magazine - Ank 093
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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अषाढ: २४७७ : १८५ :
जीव अने अजीव तो स्वतंत्र तत्त्वो छे, ने तेमांथी जीवनी अवस्थामां पुण्य–पाप–आस्रव–संवर–निर्जरा–
बंध अने मोक्ष एवा सात प्रकार पोतानी योग्यताथी पडे छे, तथा अजीवतत्त्व तेना निमित्तरूप छे तेनी
अवस्थामां पण पुण्य–पाप वगेरे सात प्रकारो पडे छे. एक आत्मा ज सर्वव्यापक छे ने बीजुं बधुं भ्रम छे–एम
जे माने तेने सात तत्त्वो रहेता नथी, अने सात तत्त्वना ज्ञान वगर आत्मानुं ज्ञान थई शकतुं नथी. साते
तत्त्वोमां बब्बे बोल लागु पडे छे, एक जीवरूप छे ने बीजुं अजीवरूप छे.
आत्माने समज्या वगर जीवनो अनंतकाळ गयो; ते अनंतकाळमां बीजा बाह्य उपायोने कल्याणनुं
साधन मान्युं पण अंतरमां सिद्ध भगवान जेवो चैतन्यमूर्ति आत्मा बिराजी रह्यो छे तेनुं शरण लउं तो कल्याण
प्रगटे–एम न मान्युं. पूजा, भक्ति, व्रत, उपवास वगेरेना शुभरागने ने क्रियाकांडने मुक्तिनुं साधन मान्युं पण
ए बधो य राग तो संसारनुं कारण छे, राग ते आत्मानी मुक्तिनुं कारण नथी. आम समजीने शुं करवुं? –के
नवतत्त्वोने अने आत्माना अभेद स्वभावने जाणीने आत्मस्वभाव तरफ वळवुं, तेनो ज आश्रय करवो, ए ज
धर्म छे ने ए ज कल्याण छे.
जे जीव विषय–कषायमां ज डूबेलो छे ने तत्त्वना विचारनो पण अवकाश लेतो नथी, ते तो पापमां
पडेलो छे, तेनी अहीं वात नथी. पण, मारे आत्मानुं कल्याण करवुं छे–एम जेने जिज्ञासा जागी छे, विषय–
कषायोथी कंईक पाछो फरीने जे नवतत्त्वना विचार करे छे ने अंतरमां आत्मानो अनुभव करवा मांगे छे तेनी
आ वात छे. नवतत्त्वनो विचार पांच ईन्द्रियोनो विषय नथी, पांच ईन्द्रियोना अवलंबने नवतत्त्वनो निर्णय
थतो नथी; एटले नवतत्त्वनो विचार करनार जीव पांच ईन्द्रियोना विषयोथी तो पाछो फरी गयो छे. हजी
मननुं अवलंबन छे, पण ते जीव मनना अवलंबनमां अटकवा नथी मांगतो, ते तो मननुं अवलंबन पण
छोडीने अभेद आत्मानो अनुभव करवा मांगे छे. स्वलक्षथी रागनो नकार अने स्वभावनो आदर करनारो जे
भाव छे ते निमित्त अने रागनी अपेक्षा विनानो भाव छे, तेमां भेदना अवलंबननी रुचि छोडीने अभेद
स्वभावनो अनुभव करवानी रुचिनुं जे जोर छे ते निश्चय–सम्यग्दर्शननुं कारण थाय छे.
विचार कर्या तेना करतां आ कांईक जुदी रीतनी वात छे. पूर्वे नवतत्त्वना विचार कर्या ते अभेदस्वरूपना लक्ष
वगर कर्या छे, ने अहीं तो अभेदस्वरूपना लक्ष सहितनी वात छे. पूर्वे एकला मनना स्थूळ विषयथी
नवतत्त्वना विचाररूप आंगणा सुधी तो आत्मा अनंतवार आव्यो छे, पण त्यांथी आगळ विकल्प तोडी ध्रुव
चैतन्यतत्त्वमां एकपणानी श्रद्धा करवानी अपूर्व समजण शुं छे ते न समज्यो तेथी भवभ्रमण ऊभुं रह्युं. परंतु
अहीं तो एवी वात लीधी नथी. अहीं तो अपूर्व शैलीनुं कथन छे के आत्मानो अनुभव करवा माटे जे
नवतत्त्वना विचार सुधी आव्यो छे ते नवतत्त्वनो विकल्प तोडी अभेद आत्मानो अनुभव करे ज छे.
नवतत्त्वना विचार सुधी आवीने पाछो फरी जाय एवी वात अहीं छे ज नहीं.
निश्चयना अनुभवमां तो नवतत्त्व वगेरे व्यवहार अभूतार्थ छे, परंतु निश्चयनो अनुभव प्रगट
करवानी पात्रतावाळा जीवने एवो ज व्यवहार होय, एथी विरुद्ध बीजो व्यवहार न होय. व्यवहारने सर्वथा
अभूतार्थ गणीने तेमां गोटा वाळे अने तत्त्वनो निर्णय न करे तो ते तो हजी परमार्थना आंगणे पण नथी
आव्यो. कुतत्त्वोनी मान्यता ते परमार्थनुं आंगणुं नथी पण साचा तत्त्वोनी मान्यता ते परमार्थनुं आंगणुं छे.
जेम कोईने नागरना घरमां जवुं होय ने भंगीयाना आंगणे जईने ऊभो रहे तो ते नागरना घरमां प्रवेशी शके
नहि, पण जो नागरना ज घरना आंगणे ऊभो होय तो ते नागरना घरमां प्रवेश करी शके. तेम सर्वज्ञ प्रभुए
कहेला चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानो अनुभव करवा माटे सर्वज्ञदेवे कहेलां आ नवतत्त्वो वगेरेनो निर्णय
करवो ते प्रथम अनुभवनुं आंगणुं छे, तेनो जे निर्णय करता नथी ने बीजा कुतत्त्वोने माने छे ते तो हजी
सर्वज्ञ–भगवाने कहेला आत्मस्वभावना अनुभवना आंगणे पण नथी आव्यो, तो तेने अनुभवरूपी घरमां तो
प्रवेश क्यांथी थाय? पहेलांं रागमिश्रित विचारथी नवतत्त्व वगेरेनो निर्णय करे पछी अभेद ज्ञायकस्वभाव
तरफ वळीने अनुभव करतां ते बधा भेदो अभूतार्थ छे.