: १८४: आत्मधर्म: ९३
ओळखाण करावी; ते नव तत्त्वोने ओळखवानुं प्रायेजन शुं छे ते हवे कहेशे. नव तत्त्वने ओळखीने अंतरमां
अभेद चैतन्यमूर्ति स्वभावनो शुद्धनयथी अनुभव करवो ते ज प्रयोजन छे, ने एवो अनुभव करवो ते ज
सम्यग्दर्शन छे, ते कल्याणनुं मूळियुं छे.
जुओ, चैतन्यनी समजण अनंतकाळमां नथी करी; अनादि काळथी संसारपरिभ्रमण करे छे तेमां
चैतन्यनी समजणनो रस्तो लीधा वगर बीजा बधा बाह्य साधनो कर्यां छे, पण संसारभ्रमण नथी टळ्युं. केम के
चैतन्यनी समजण करवी ते ज संसारभ्रमण टाळवानो उपाय छे, ते उपाय बाकी रही गयो छे. तेथी श्रीमद्
राजचंद्रजी नीचेना काव्यमां ‘शुं साधन बाकी रही गयुं’ ते जणावतां कहे छे के–
यम नियम संयम आप क्यिो,
पुनि त्याग विराग अथाग लह्यो,
वनवास रयो, मुख मौन रह्यो,
द्रढ आसन पद्म लगाय दियो;
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वह साधन वार अनंत क्यिो,
तदपि कछू हाथ हजु न पर्यो;
अब कयों न विचारत है मनसें,
कछू ओर रहा उन साधनसें.
यम, नियम, व्रत, तप, बाह्य, त्याग वैराग्य वगेरे बधा साधन कर्या पण चैतन्यस्वरूपी पोतानो आत्मा
कोण छे तेनी समजणरूप साचुं साधन बाकी रही गयुं, तेथी जीव किंचित् कल्याण पाम्यो नथी.
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्य देव कहे छे के हे भव्य आत्माओ! आत्माना अभेद स्वरूपनो अनुभव करतां
पहेलांं वच्चे नव तत्त्वनी भेदरूप प्रतीति आव्या विना रहेती नथी, पण ते नवतत्त्वना भेदरूप विचारनो ज
आश्रय मानीने अटकशो नहि; नवतत्त्वना भेदरूप विचारना आश्रये अटकवाथी सम्यक् आत्मा अनुभवमां
आवतो नथी. पण ते भेदनो आश्रय छोडीने–रागमिश्रित विचारनो अभाव करीने, अभेदस्वभावसन्मुख थईने
शुद्ध आत्मानो निर्विकल्प अनुभव अने प्रतीत करतां सम्यक्श्रद्धा थाय छे, ते आत्माना कल्याणनो उपाय छे.
अवस्थामां जीवनी योग्यता अने अजीवनुं निमित्तपणुं–एवो निमित्तनैमित्तिक संबंध जो न होय तो
सात तत्त्वो ज सिद्ध थता नथी. जीव अने अजीवनी अवस्थामां निमित्तनैमित्तिक संबंध छे ते द्रष्टिथी जोतां
नवतत्त्वोना भेद विद्यमान छे. अने जो एकला चैतन्यमूर्ति अखण्ड जीवतत्त्वने लक्षमां ल्यो तो, द्रव्यद्रष्टिमां
निमित्तनैमित्तिक संबंध पण नहि होवाथी, नवतत्त्वना भेद पडता नथी; माटे शुद्ध चैतन्य स्वभावनी द्रष्टिथी
जोतां नवतत्त्वो अभूतार्थ छे ने एक चैतन्य परमतत्त्व ज प्रकाशमान छे. जो के वर्तमान निर्मळपर्याय छे खरी
पण ते अभेदमां भळी जाय छे, अर्थात् द्रव्य अने पर्यायना भेदनो विकल्प ते जीवने नथी. आवो अनुभव ते
ज सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चारित्र छे.
जीवना भावरूप साततत्त्वो जीवमां छे, तेम ज तेमां निमित्तरूपे जडनी अवस्थामां साततत्त्वो छे ते
अजीवमां छे. आवा सात प्रकारो एकला शुद्ध जीवमां के एकला अजीवमां होय नहि. ए नव तत्त्वोनुं घणी घणी
रीते वर्णन कहेवायुं छे. ते प्रमाणे नव तत्त्वोने नक्की कर्या वगर आत्मानुं स्वरूप समजी शकाय नहि अने
पोतानुं स्वरूप शुं छे ते समज्या वगर चैतन्यसुखनी प्राप्ति थाय नहि.
‘अमूल्य तत्त्वविचार’ मां श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–
हुं कोण छुं? क्यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारुं खरूं?
कोना संबंधे वळगणा छे? राखुं के ए परिहरुं?
एना विचार विवेक पूर्वक शांतभावे जो कर्यां,
तो सर्व आत्मिकज्ञाननां सिद्धांततत्त्वो अनुभव्यां.
विचार तेमां आवी जाय छे. हुं चैतन्यस्वरूप जीव छुं, शरीरादि अजीव छे ते हुं नथी, पुण्य–पाप–आस्रव ने बंध
ए भावो दुःखरूप छे, संवर–निर्जरा भाव ते सुखनुं कारण छे ते धर्म छे, मोक्ष ते पूर्ण सुखरूप निर्मळदशा छे. –
आ प्रमाणे एक जीव संबंधी विचार करतां नवे तत्त्वो आवी जाय छे.