Atmadharma magazine - Ank 093
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष ८ मुं, अंक नवमो, अषाढ २४७७
९३
: संपादक:
वकील रामजी माणेकचंद दोशी
... तो मनुष्यपणुं शुं
कामनुं?
कोई कहे–‘आत्मानी झीणी वात अमने न समजाय.’ पण भाई! आत्मानी वात न
समजाय एम कहे तो अनंतकाळे महा दुर्लभ मनुष्यपणुं मळ्‌युं शुं कामनुं? आत्माना
भान विना जगतमां कैंक कूतरां, अणशियां जन्मे–मरे छे, तेनो महिमा नथी. तेम
अनंतकाळे महान दुर्लभ मनुष्यपणुं पामी अपूर्व आत्मस्वभावने सत्समागम वडे न
जाणे तो तेनी कांई किंमत नथी; अने जो पात्रता वडे आत्मस्वभावने जाणे तो ते
ज्ञाननो महिमा अपार छे.
(पृ. १६)
जेटलो काळ परने माटे गाळे छे तेटलो काळ जो स्वने माटे गाळे तो कल्याण थया
विना रहे नहीं. भाई रे! अनंतकाळे महादुर्लभ मनुष्यपणुं मळ्‌युं, तेमां कल्याण न कर्युं
तो क्यारे करीश?
–समयसार प्रवचनो १, पृ. ९०.