विशेष स्थिर थई, कषायनी त्रण चोकडीनो अभाव करी, निर्विकल्प
ध्यानदशा प्रगटे तेने अप्रमत्त नामे सातमी भूमिका कहे छे; पछी
सविकल्पदशा आवे तेने छठ्ठुं प्रमत्तगुणस्थान कहे छे. मुनि आ बे दशा
वच्चे वारंवार झूल्या करे छे.
भूमिका बदल्या करे छे. त्रणे काळे मुनिदशा आवी ज होय छे. ते मुनिदशा
दिगंबरपणुं होय छे. सातमे गुणस्थाने बुद्धिपूर्वक विकल्पो छूटी जाय छे
अने आत्मस्वरूपनी स्थिरतामां तद्न निर्विकल्प आनंदमां लीन थई जाय
छे, त्यां क्षणे क्षणे साक्षात् सिद्ध परमात्मा जेवो आनंद अंशे अनुभवाय
छे. ‘हुं आत्मा छुं, शुद्ध आनंदस्वरूप छुं’ एवा विकल्प पण त्यां होता
नथी, मात्र स्वसंवेदन होय छे. –आवी स्थिति–साधकदशा भगवान
कुंदकुंदाचार्यदेवनी हती, क्षणे प्रमत्त अने क्षणे अप्रमत्त दशामां तेओ झूलता
हता.
वात करे छे, ने क्षणमां ते शुभ विकल्प तूटीने सातमी भूमिकामां मात्र
अतीन्द्रिय आत्मानंदमां ठरे छे, आवी ते उत्कृष्ट साधकदशा छे; ते तेमनो
निजवैभव छे. ते निजवैभवथी तेओ आत्मानुं वास्तविक स्वरूप जगतने
कहे छे के ज्ञायक नित्य एकरूप चैतन्यज्योति छे, ते वर्तमान क्षणिक
अवस्थाना कोई भेदरूपे नथी पण केवळ ज्ञायकपणे शुद्ध छे, अखंड
एकाकार ज्ञायकस्वभावमां अप्रमत्त–प्रमत्तना भेद परमार्थे नथी.