शुद्धात्माने जाणे तो. कोई बहारनी प्रवृत्तिथी के रागमां प्रवृत्तिथी आत्माने शुद्धता थती नथी पण शुद्धआत्मामां
प्रवृत्तिथी ज आत्माने शुद्धता थाय छे.
वर्तन छे. पहेलांं ज्यारे शुद्धात्माने जाण्यो न हतो त्यारे रागद्वेषने पोतानां मानतो, तेथी ते रागद्वेषमां ज
प्रवृत्ति द्वारा वर्तनमां विकारनी उग्रता आवती हती; हवे शुद्धात्माने जाणतां ते मान्यता छेदाणी अने भान थयुं
के राग–द्वेष मारुं स्वरूप नथी, हुं धु्रव शुद्ध आत्मा छुं. –आवुं भान थतां धर्मीने विकारमां वर्तननी उग्रता न
रही पण शुद्धात्मामां वर्तननी मुख्यता थई, आने स्वरूपाचरण चारित्र कहे छे; सम्यक्–श्रद्धा–ज्ञान साथे एवुं
चारित्र प्रगट्यु, ते प्रथम धर्म छे.
गुणोमां कथंचित् गुणभेद न होय तो चारित्रगुणनी विकारी पर्याय वखते ज श्रद्धा–ज्ञाननी पर्याय शुद्ध स्वभाव
तरफ वळी शके नहि. परंतु वस्तुमां कथंचित् गुणभेद पण छे एटले चारित्रगुणनी अशुद्धता वखते पण श्रद्धा–
ज्ञाननी पर्याय शुद्धस्वभाव तरफ वळीने सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थाय छे; अवस्थामां राग होवा छतां शुद्ध आत्माना
श्रद्धा–ज्ञान थई शके छे. वस्तुमां जो गुणभेद न होय ने सर्वथा अभेद ज वस्तु होय तो साधकपणुं संभवतुं
नथी. ए रीते गुणभेद होवा छतां वस्तुपणे गुणो अभेद छे, एटले वस्तु परिणमतां बधा गुणो एक साथे
परिणमे छे. श्रद्धा–ज्ञाननी पर्याय स्वभाव तरफ वळतां चारित्रगुणनो अंश पण स्वभावमां वळे छे. श्रद्धा अने
ज्ञान सम्यक् थाय अने ते वखते चारित्रमां बिलकुल शुद्धता न थाय–एम बने नहि; सम्यक् श्रद्धा–ज्ञाननी साथे
ज स्वरूपाचरणचारित्र थई जाय छे. जो एकांत गुणभेद होय तो तेम बने नहि, अने जो एकांत अभेदपणुं ज
रीते वस्तु अनेकांतस्वभावी छे. वस्तुना बधा गुणोनुं एक साथे अंशे कार्य आवे छे, केम के वस्तु एक ज
परिणमे छे. छतां श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र वगेरे गुणोना विकासमां क्रम पण पडे छे, केम के दरेक गुणनुं परिणमन
भिन्न भिन्न छे. जो श्रद्धा–ज्ञान स्वमां वळे ने चारित्र जराय स्वमां न वळे तो सर्वथा गुणभेद थई जाय छे; तेम
ज, जो सम्यक्श्रद्धा थतां तेनी साथे ज ज्ञान–चारित्र पण पूरां प्रगट थई जाय तो गुणभेदनो सर्वथा अभाव
थाय छे. –ए बंनेमां वस्तुनो स्वभाव सिद्ध थतो नथी. माटे आत्मानुं स्वरूप अनेकांतमय छे. एवुं आत्मस्वरूप
बतावनारा देव, गुरु ने शास्त्र केवा होय ते ओळखवुं जोईए.
आत्मा जुदो छे. एवा आत्मानुं कल्याण (–हित, धर्म, सुख) करवा माटे ते आत्मानुं मूळस्वरूप शुं छे ते जाणवुं
जोईए. आत्मा स्वयंसिद्ध अनंतगुणोनो पिंड छे, –तेनामां अनंत गुणो छे, तेमां श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र वगेरे
मुख्य गुणो छे. राग थाय ते चारित्रगुणनी एक समयनी विकारी पर्याय छे. जे वखते राग थाय ते वखते ज
‘राग हुं नहि, ज्ञानस्वभाव ते हुं’ –एवी प्रतीत कोण करे? रागमां पोतामां रागरहित स्वभावने कबूलवानुं
सामर्थ्य नथी. राग तो चारित्रनो दोष छे, तेथी ते राग वखते रागरहित स्वभावनी प्रतीत करनार चारित्रथी
जुदो गुण होवो जोईए. ते श्रद्धा–गुण छे. ते श्रद्धा–गुण चारित्रना क्षणिक विकारने ज आत्मानुं स्वरूप न
स्वीकारतां, त्रिकाळी धु्रव ज्ञानस्वभाव तरफ वळीने शुद्ध आत्मानी प्रतीत करे छे, ज्ञानगुण स्वतरफ वळीने
प्रमाणे शुद्ध आत्माने जाणीने तेमां ज प्रवृत्तिथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धात्मपणुं होय छे अने ते ज
कल्याणनो ने मोहना नाशनो उपाय छे. – (०) –