Atmadharma magazine - Ank 095
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: २४४ : आत्मधर्म : ९५
[३४] ‘पुरुष प्रमाणे वचन प्रमाण’
पुरुष प्रमाणे वचन प्रमाण–पुरुषनी प्रमाणता अनुसार तेना वचननी प्रमाणता होय छे. पूर्ण पुरुषने
ओळख्या पछी तेनां वचनोने प्रमाण जाणीने, तेमां कहेला वस्तुस्वरूपने धर्मी जीवो समजी जाय छे. जो पुरुषनी
प्रमाणता न होय तो वाणी पण प्रमाणरूप नथी, अने जेने निमित्त तरीके प्रमाणभूत वाणी नथी तेने पोताना
नैमित्तिकभावमां पण ज्ञाननी प्रमाणता नथी. प्रमाणज्ञानमां निमित्त तरीके प्रमाणरूप वाणी ज होय एटले के
सत् समजवामां ज्ञानीनी ज वाणी निमित्त होय, अज्ञानीनी वाणी निमित्त न होय. सर्वज्ञ पुरुषने ओळख्या
वगर तेना वचननी प्रमाणता समजाय नहि अने ते वगर आत्मानी समजण थाय नहीं. माटे सौथी पहेलांं
सर्वज्ञनो निर्णय अवश्य करवो जोईए.
[३५] धर्मनी शरूआत कई रीते थाय?
अहो, जगतना जीवोए आत्मानी वात पोतानी करीने अनंतकाळमां कदी सांभळी नथी; धर्मना बहाने
परना अहंकारमां अटक्यो छे, ने बहुं तो शुभभावने ज धर्म मानीने संतोषाई गयो छे, पण जेना आधारे धर्म
थाय छे एवा आत्मस्वभावने कदी समज्यो नथी. व्रतनो शुभविकल्प ऊठे तेने जे धर्म माने ते पण मिथ्याद्रष्टि
छे. लूगडां छोडी दीधे के पाट उपर बेसे कांई आत्मकल्याण थई जतुं नथी. अंतरमां त्रिकाळ शुद्ध आत्मा केवो छे
अने ते केम प्रगटे? एना भान वगर धर्म थाय नहि. क्षणिक पुण्य–पाप रहित, आत्मानो ज्ञान–स्वभाव छे,
तेमां पूर्ण ज्ञानसामर्थ्य भर्युं छे–तेनी ओळखाणथी धर्मनी शरूआत थाय छे. एवी ओळखाण करवा माटे प्रथम
तो जेमने पूर्ण ज्ञानसामर्थ्य खीली गयुं छे एवा सर्वज्ञदेवनुं स्वरूप जाणवुं जोईए.
[३६] सर्वज्ञ क्यां छे? अने केवा होय?
अत्यारे आ भरतक्षेत्रमां कोई सर्वज्ञ विचरता नथी, तो आ जगतमां बीजुं कयुं क्षेत्र छे के ज्यां अत्यारे
सर्वज्ञदेव विचरता होय! अत्यारे आ पृथ्वी उपर महाविदेह क्षेत्रमां श्री सीमंधर भगवान वगेरे वीस तीर्थंकरो
अने अनेक केवळी भगवंतो सर्वज्ञपणे विचरी रह्या छे. एटले सर्वज्ञने नक्की करतां महाविदेहादिक्षेत्र पण नक्की
थई जाय छे. ते सर्वज्ञ पुरुषना ज्ञान बहार कांई न होय, तेने रागद्वेष होय नहि, ते दुनियाना जीवोनुं कांई करे
नहि; वळी ते सर्वज्ञ पुरुष रोटला खाय नहि, स्त्री राखे नहि, शस्त्र के वस्त्र राखे नहि, तेने रोग थाय नहि, ते
पृथ्वी उपर चाले नहि पण आकाशमां विचरे, तेने क्रमिक भाषा न होय पण निरक्षरी दिव्यध्वनि होय, ते कोईने
वंदन करे नहि. –आवा पूर्ण ज्ञानी आत्माने जाण्या वगर यथार्थपणे पूर्णतानी भावना थाय नहि. धर्म द्वारा जे
पूर्णपद पोताने प्राप्त करवुं छे तेनुं स्वरूप तो जाणवुं जोईए ने? अने ते पूर्णपद प्रगटवानी शक्ति पोताना
स्वभावमां छे, एने जाणे तो धर्मनी शरूआत थाय.
[३७] सर्वज्ञ भगवाने कहेलो अनेकान्त
सर्वज्ञ भगवाने उपदेशमां शुं कह्युं? सर्वज्ञ भगवाने उपदेशमां अनेकांतमय वस्तुस्वरूप बताव्युं छे. दरेक
वस्तु पोताना स्वभावथी अस्तिरूप छे ने परथी नास्तिरूप छे, एटले दरेक तत्त्व स्वतंत्र पोतपोताथी परिपूर्ण
छे. हवे आत्मानी क्षणपूरती दशामां विकार छे, त्रिकाळी स्वभावमां ते विकार नथी, एटले तेमां पण अनेकांत
थई गयुं के विकारमां त्रिकाळ नथी ने त्रिकाळमां विकार नथी. आवो अनेकांतस्वभाव न बतावे ने विकारने
आत्मानुं स्वरूप मनावे ते कोई देव–गुरु के शास्त्र साचा नथी. त्रिकाळी स्वभाव छे तेमां एक क्षणनो विकार
नथी अने अवस्थामां एक क्षणनो विकार छे तेमां त्रिकाळी स्वभाव नथी–एवा अनेकान्तने जाणीने त्रिकाळी
स्वभाव तरफ वळवाथी कल्याण थाय छे. आमां निश्चय ने व्यवहार वगेरे घणुं रहस्य आवी जाय छे. सवर्ज्ञनो
निर्णय कर्यो ते व्यवहार छे ने आत्माना स्वभाव तरफ वळ्‌यो ते निश्चय छे.
[३८] शेमां प्रवृत्ति करवाथी आत्माने शुद्धता थाय?
आचार्यदेव कहे छे के ‘आ यथोक्त विधि वडे शुद्धात्माने जे धु्रव जाणे छे, तेने तेमां ज प्रवृत्तिद्वारा
शुद्धात्मत्व होय छे. ’ जे शुद्ध आत्माने धु्रव जाणे छे तेने ज तेमां प्रवृत्तिथी शुद्धता होय छे, पण जे शुद्धात्माने
नथी जाणतो तेने शुद्धता होती नथी; एटले एक जीव शुद्धआत्माने जाणे त्यां बधायने जणाई जाय–एम नथी,
तेम ज एक जीव शुद्ध थतां बधा जीवो शुद्ध थई जाय–एम बनतुं नथी. दरेक जीव स्वतंत्र छे, तेमां पोतानी
योग्यताथी जे जीव शुद्धात्माने समजे छे