प्रमाणता न होय तो वाणी पण प्रमाणरूप नथी, अने जेने निमित्त तरीके प्रमाणभूत वाणी नथी तेने पोताना
नैमित्तिकभावमां पण ज्ञाननी प्रमाणता नथी. प्रमाणज्ञानमां निमित्त तरीके प्रमाणरूप वाणी ज होय एटले के
सत् समजवामां ज्ञानीनी ज वाणी निमित्त होय, अज्ञानीनी वाणी निमित्त न होय. सर्वज्ञ पुरुषने ओळख्या
वगर तेना वचननी प्रमाणता समजाय नहि अने ते वगर आत्मानी समजण थाय नहीं. माटे सौथी पहेलांं
सर्वज्ञनो निर्णय अवश्य करवो जोईए.
थाय छे एवा आत्मस्वभावने कदी समज्यो नथी. व्रतनो शुभविकल्प ऊठे तेने जे धर्म माने ते पण मिथ्याद्रष्टि
छे. लूगडां छोडी दीधे के पाट उपर बेसे कांई आत्मकल्याण थई जतुं नथी. अंतरमां त्रिकाळ शुद्ध आत्मा केवो छे
तेमां पूर्ण ज्ञानसामर्थ्य भर्युं छे–तेनी ओळखाणथी धर्मनी शरूआत थाय छे. एवी ओळखाण करवा माटे प्रथम
तो जेमने पूर्ण ज्ञानसामर्थ्य खीली गयुं छे एवा सर्वज्ञदेवनुं स्वरूप जाणवुं जोईए.
थई जाय छे. ते सर्वज्ञ पुरुषना ज्ञान बहार कांई न होय, तेने रागद्वेष होय नहि, ते दुनियाना जीवोनुं कांई करे
नहि; वळी ते सर्वज्ञ पुरुष रोटला खाय नहि, स्त्री राखे नहि, शस्त्र के वस्त्र राखे नहि, तेने रोग थाय नहि, ते
पृथ्वी उपर चाले नहि पण आकाशमां विचरे, तेने क्रमिक भाषा न होय पण निरक्षरी दिव्यध्वनि होय, ते कोईने
वंदन करे नहि. –आवा पूर्ण ज्ञानी आत्माने जाण्या वगर यथार्थपणे पूर्णतानी भावना थाय नहि. धर्म द्वारा जे
पूर्णपद पोताने प्राप्त करवुं छे तेनुं स्वरूप तो जाणवुं जोईए ने? अने ते पूर्णपद प्रगटवानी शक्ति पोताना
स्वभावमां छे, एने जाणे तो धर्मनी शरूआत थाय.
छे. हवे आत्मानी क्षणपूरती दशामां विकार छे, त्रिकाळी स्वभावमां ते विकार नथी, एटले तेमां पण अनेकांत
थई गयुं के विकारमां त्रिकाळ नथी ने त्रिकाळमां विकार नथी. आवो अनेकांतस्वभाव न बतावे ने विकारने
आत्मानुं स्वरूप मनावे ते कोई देव–गुरु के शास्त्र साचा नथी. त्रिकाळी स्वभाव छे तेमां एक क्षणनो विकार
नथी अने अवस्थामां एक क्षणनो विकार छे तेमां त्रिकाळी स्वभाव नथी–एवा अनेकान्तने जाणीने त्रिकाळी
निर्णय कर्यो ते व्यवहार छे ने आत्माना स्वभाव तरफ वळ्यो ते निश्चय छे.
नथी जाणतो तेने शुद्धता होती नथी; एटले एक जीव शुद्धआत्माने जाणे त्यां बधायने जणाई जाय–एम नथी,
योग्यताथी जे जीव शुद्धात्माने समजे छे