Atmadharma magazine - Ank 100
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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१००
अंकनी साथे साथे ‘आत्मधर्मना अंकोनो प्रथम सैको पूर्ण थाय छे. वीर सं. २४६९ ना
मागसर सुद बीजे प्रसिद्ध थयेला प्रथम अंकथी शरू करीने आज सुधीना १०० अंकोमां जे कांई पण
पीरसायुं छे ते बधुंय परमकृपाळु पू. गुरुदेवश्रीनी अमृतवाणीनो ज निचोड छे; तेथी सो अंकनी
समाप्तिना आ प्रसंगे तेओश्रीना पावन चरणारविंदमां अतिशय भक्तिपूर्वक नमस्कार करीए छीए.
जेम पू. गुरुदेवश्रीनी पवित्र मुद्रा चैतन्यतेजथी चमकी रही छे तेम तेओश्रीनी अपूर्ववाणी
आत्मशौर्यथी ऊछळी रही छे. आत्मधर्मनी शरूआतथी मांडीने आज सुधीना कोई पण वर्षनी फाईल के
अंक वांचो तो आजे पण ते वाणीमां ताजेताजुं आत्मिक शौर्य झळकी रहेलुं देखाशे. आत्मिक शौर्यना
उल्लास वगरनुं ढीलुंढफ कथन पू. गुरुदेवश्रीनी वाणीमां कदी आवी शकतुं नथी. तेओश्री तो सदाय एम ज
कहे छे केः अरे जीव! आत्मामां ज रहेली परमात्मशक्तिनी प्रतीत करीने तारा आत्मिक शौर्यने उछाळ!
तारो आत्मा नमालो के तुच्छ नथी पण सिद्ध परमात्मा जेवा पूर्ण सामर्थ्यवाळो प्रभु छे, माटे ते पूर्णताना
लक्षे तारा आत्मवीर्यने उपाड!
–खरेखर! पू. गुरुदेवश्रीनी वाणी अपूर्व चमक भरेली अने शौर्यप्रेरक छे. जे जीव पात्र थईने
तेओश्रीनी वाणीने झीले तेनुं आत्मिक शौर्य जरूर ऊछळी जाय. अहो! पोतानी अपूर्व वाणी द्वारा पात्र
जीवोने प्रभुता आपनार गुरुदेवनो उपकार अहीं कई रीते व्यक्त करीए!!
पू. गुरुदेवश्रीनी प्रत्यक्ष वाणीए जेम अनेक सुपात्र श्रोताओने सन्मार्गमां स्थाप्या छे तेम
‘आत्मधर्म’ द्वारा पण तेओश्रीनी वाणीए अनेक सुपात्र जीवोने सन्मार्गमां आकर्ष्या छे. पू. गुरुदेवश्रीनी
वाणीमां झरता जैनशासनना मूळभूत कल्याणकारी विषयो चूंटी चूंटीने आत्मधर्ममां अपाय छे; तेनो दरेक
अंक आजे पण एवो ने एवो पठनीय–मननीय छे; तेना अंको जूना थवा छतां तेमां भरेल आत्मशौर्यनी
झलक झांखी नथी पडती. जेमणे आत्मधर्मना सो ए सो अंको न वांच्या होय तेओ १ थी १०० सुधीना
बधा अंको जरूर वांचे अने अंतरमां विचार करे के, जेमनी वाणीना अंशमां पण आटलुं उग्र आत्मतेज
प्रकाशी रह्युं छे तेमना अंतर–आत्मपरिणमनमां पुरुषार्थनो केवो दिव्य प्रवाह वहेतो हशे! ! !
आत्मधर्ममां अनेक वखत कहेवाई गयेली वातने अहीं प्रसंगोचित फरीने याद करीए छीए केः
एकली शास्त्रनी वाणी ते तो फक्त बहिरंग निमित्त छे. देशनालब्धि माटे जिज्ञासुओने खरुं अंतरंग
निमित्त तो सम्यक्पणे परिणमता सत्पुरुषनो साक्षात् चैतन्यमूर्ति आत्मा ज छे; माटे एकला आत्मधर्मना
वांचनथी के अन्य शास्त्रोना वांचनथी संतोष न मानतां साक्षात् चैतन्यमूर्ति गुरुदेवनो सीधो समागम
करवो. ते ज हितनुं कारण छे.
अहो! आत्मार्थी जीवोने अपूर्व कल्याणना दातार एवा पू. गुरुदेवश्रीने अने तेओश्रीनी
स्वरूपबोधक वाणीने फरीफरीने, एवी भावनासहित नमस्कार करीए छीए के–तेओश्रीनी कृपाद्रष्टि नीचे
‘आत्मधर्म’ ना मासिक–सैकानी माफक वार्षिक–सैको ऊजववानुं सौभाग्य प्राप्त थाओ.......
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