पीरसायुं छे ते बधुंय परमकृपाळु पू. गुरुदेवश्रीनी अमृतवाणीनो ज निचोड छे; तेथी सो अंकनी
समाप्तिना आ प्रसंगे तेओश्रीना पावन चरणारविंदमां अतिशय भक्तिपूर्वक नमस्कार करीए छीए.
अंक वांचो तो आजे पण ते वाणीमां ताजेताजुं आत्मिक शौर्य झळकी रहेलुं देखाशे. आत्मिक शौर्यना
उल्लास वगरनुं ढीलुंढफ कथन पू. गुरुदेवश्रीनी वाणीमां कदी आवी शकतुं नथी. तेओश्री तो सदाय एम ज
कहे छे केः अरे जीव! आत्मामां ज रहेली परमात्मशक्तिनी प्रतीत करीने तारा आत्मिक शौर्यने उछाळ!
तारो आत्मा नमालो के तुच्छ नथी पण सिद्ध परमात्मा जेवा पूर्ण सामर्थ्यवाळो प्रभु छे, माटे ते पूर्णताना
लक्षे तारा आत्मवीर्यने उपाड!
जीवोने प्रभुता आपनार गुरुदेवनो उपकार अहीं कई रीते व्यक्त करीए!!
वाणीमां झरता जैनशासनना मूळभूत कल्याणकारी विषयो चूंटी चूंटीने आत्मधर्ममां अपाय छे; तेनो दरेक
अंक आजे पण एवो ने एवो पठनीय–मननीय छे; तेना अंको जूना थवा छतां तेमां भरेल आत्मशौर्यनी
झलक झांखी नथी पडती. जेमणे आत्मधर्मना सो ए सो अंको न वांच्या होय तेओ १ थी १०० सुधीना
बधा अंको जरूर वांचे अने अंतरमां विचार करे के, जेमनी वाणीना अंशमां पण आटलुं उग्र आत्मतेज
प्रकाशी रह्युं छे तेमना अंतर–आत्मपरिणमनमां पुरुषार्थनो केवो दिव्य प्रवाह वहेतो हशे! ! !
निमित्त तो सम्यक्पणे परिणमता सत्पुरुषनो साक्षात् चैतन्यमूर्ति आत्मा ज छे; माटे एकला आत्मधर्मना
वांचनथी के अन्य शास्त्रोना वांचनथी संतोष न मानतां साक्षात् चैतन्यमूर्ति गुरुदेवनो सीधो समागम
करवो. ते ज हितनुं कारण छे.
‘आत्मधर्म’ ना मासिक–सैकानी माफक वार्षिक–सैको ऊजववानुं सौभाग्य प्राप्त थाओ.......