ः ८२ः आत्मधर्मः १००
* राग–द्वेषनुं मूळ प्रेरक कोण? *
(राग द्वेषनुं मूळ कारण मिथ्यात्व छे)
कोऊ सिष्य कहै स्वामी राग दोष परिनाम,
ताकौ मूल प्रेरक कहहु तुम कौन है;
पुग्गल करम जोग किंधौं ईंद्रिनिकौ भोग,
किंधौं धन किंधौं परिजन किंधौं भौन है.
गुरु कहै छहौं दर्व अपने अपने रूप,
सबनिको सदा असहाई परिनौन हैं;
कोऊ दरव काहूकौ न प्रेरक कदाचि तातैं,
राग दोष मोह मृषा मदिरा अचौन हैं. ६१.
अर्थः–शिष्य प्रश्न करे छे के हे स्वामी! राग–द्वेष परिणामोनुं मुख्य कारण (–मूळ प्रेरक) कोण छे?–
पौद्गलिक कर्म छे? के ईंद्रियोनो भोग छे? अथवा धन छे? घरना लोक छे? के घर छे? ते आप कहो.
त्यां श्री गुरु समाधान करे छे के–छए द्रव्यो पोतपोताना स्वरूपमां सदा निजाश्रित
परिणमन करे छे, कोई द्रव्य कोई द्रव्यनी परिणतिने माटे कदी पण प्रेरक थतुं नथी; माटे राग–
द्वेषनुं मूळ कारण मोह–मिथ्यात्वरूपी मदिरापान छे.
(उपर आपेला सवैया–काव्य पं. बनारसीदासजीए समयसारना कळश २१९ उपरथी बनावेल छे.)
–जुओ, समयसार–नाटक पृः ३प१–२
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मूरख जीवने श्रीगुरुनो उपदेश
(अज्ञानीओना विचारमां राग–द्वेषनुं कारण)
कोउ मूरख यों कहैं, ‘राग–दोष परिनाम,
पुग्गलकी जोरावरी, वरतै आतमराम. ६२
ज्यों ज्यों पुग्गल बल करै, करि करि कर्म ज भेष;
रागदोषको परिनमन, त्यों त्यों होई विशेष.’ ६३
(अज्ञानीओने सत्यमार्गनो उपदेश)
ईहिविधि जो विपरीत पख, गहै सद्है कोई;
सो नर राग विरोध सौं, कबहुं भिन्न न होई; ६४.
सुगुरु कहै जगमें रहै, पुग्गल संग सदीव;
सहज सुद्ध परिनमनिको, औसर लहै न जीव. ६प.
तातै चिदभावनि विषै, समरथ चेतन राउ;
राग विरोध मिथ्यातमैं, समकितमैं सिव भाउ. ६६
अर्थः–कोई कोई मूर्ख एवुं कहे छे के आत्मामां राग–द्वेष भाव पुद्गलनी जबरजस्तीथी थाय छे; वळी
तेओ कहे छे के कर्मरूप परिणमनना उदयमां पुद्गल जेम जेम जोर करे छे तेम तेम बाहुल्यताथी (–विशेषपणे)
राग–द्वेष परिणाम थाय छे.
श्री गुरु कहे छे के जे कोई आ प्रकारे ऊंधी हठ ग्रहण करीने श्रद्धा करे छे ते कदी पण राग–द्वेष–मोहथी
छूटी शकतो नथी; केम के जगतमां पुद्गलनो संग तो सदाय रहे छे तेथी (जो पुद्गल जोरावरीथी राग–द्वेष
करावतुं होय तो) सहज शुद्ध परिणमवानो अवसर जीव कदी पामे नहीं. माटे चैतन्यभावने उपजाववामां
चेतनराजा ज समर्थ छे; ते मिथ्यात्वनी दशामां तो राग–द्वेष भाव उपजावे छे अने सम्यक्त्वदशामां शिवभाव
अर्थात् ज्ञान–दर्शन–सुख वगेरे उपजावे छे.
(अहीं आपेला पांच दोहा पं. बनारसीदासजीए समयसारना कळश २२०–२२१ उपरथी बनावेल छे.)
–जुओ समयसार–नाटक पृः ३प२–४