समजीने जे पोते पोताना स्वभावनी सन्मुख थयो तेणे सर्वज्ञने भावनमस्कार कर्या छे. आवा नमस्कार ते
मोक्षनुं कारण छे. जुओ, आ नमस्कारनो महिमा! ! पूर्वे कदी जीवे आवा नमस्कार कर्या नथी.
तेने चतुर्गति भ्रमण न होय.
धु्रवस्वभावना आधारे थयेली रुचि स्वभाव साथे कायम टकी रहे छे ने अल्पकाळे तेनी मुक्ति थई जाय छे.
आवी रुचि प्रगटवा माटे स्वभाव सिवाय बीजुं कोई कारण छे ज नहि.
करवा छे, तो ज्ञान कोना तरफ वळीने ते स्वीकारशे? परनी सामे जोईने पूर्ण ज्ञाननी यथार्थ कबूलात नहि
आवे. पूर्ण ज्ञानना आधाररूप जे गुणी एटले के आत्मस्वभाव, तेनी सन्मुख थया विना ते पूर्ण ज्ञानने
स्वीकारी शकाशे नहि. स्वभावनी सन्मुख थईने अतीन्द्रियज्ञाननो अंश पोतामां प्रगट करे त्यारे ज पूर्ण
अतीन्द्रिय एवा केवळज्ञाननी कबूलात थाय अने त्यारे ज सिद्ध भगवानने साचा नमस्कार कर्या कहेवाय. एटले
सिद्धने नमस्कार करनारो जीव स्वभावसन्मुख साधक थई गयो, ने अल्पकाळे ते सिद्ध थशे. आ रीते
साधकभावनी शरूआत थई जाय एवा मांगळिकथी आचार्यभगवाने आ समयसारनी शरूआत करी छे. ते
आजे फरीथी–नवमी वखत–प्रवचनमां वंचाय छे.
के कर्म–शरीरादि नोकर्म तथा बाह्य सामग्री
रूप पुद्गल द्रव्यनुं निमित्त पामीने जीव
रागादि अशुद्ध परिणमे छे–एवी श्रद्धा जे
कोई जीवराशि करे छे ते मिथ्याद्रष्टि छे,
अनंत–संसारी छे.