Atmadharma magazine - Ank 100
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः ८०ः आत्मधर्मः १००
वंदित्तु सव्वसिद्धे
(श्री सिद्ध भगवानने नमस्कार करनारनी जवाबदारी)
‘वंदित्तु सव्वसिद्धे’ एम कहीने श्री कुंदकुंदाचार्यदेव समयसारनी शरूआतमां मांगळिक तरीके सर्व सिद्ध
भगवंतोने नमस्कार करे छे...जेमने पूर्ण ज्ञान अने आनंद खीली गया छे ने रागादिनुं अभाव थयो छे एवां
सर्व सिद्ध भगवंतोने नमस्कार हो!
सिद्धने नमस्कार करनार जीव केवो होय? नमस्कार करनारने पोताने तो पूर्ण ज्ञान खील्युं नथी
ने अपूर्णज्ञान छे, केम के पूर्णज्ञान खीली गया पछी कोईने नमस्कार करवानुं रहे नहि. पोताने
वर्तमानमां अपूर्ण ज्ञान होवा छतां पूर्ण ज्ञानीने नमस्कार करे छे तो ते कोनी सन्मुख रहीने नमस्कार
करशे? अपूर्ण ज्ञाननी सन्मुख रहीने पूर्ण ज्ञाननो स्वीकार करी शकाय नहि. ज्यां पूर्ण ज्ञान
प्रगटाववानी ताकात भरी होय तेनी सन्मुखता करे तो ज पूर्णज्ञाननो स्वीकार थई शके. हुं अल्पज्ञ होवा
छतां सर्वनो आदर करुं छुं–तेमने नमुं छुं–मारा ज्ञानमां तेमने स्थापुं छुं, आम नमस्कार करनारने
पोताने ‘पूर्ण ज्ञान प्रगटवानो आधार कोण छे’ तेनी द्रष्टि थया विना खरेखर पूर्ण ज्ञानने नमस्कार न
थई शके. तेथी, सर्वज्ञने नमस्कार करवामां खरेखर तो पोताना ज्ञानस्वभावमां ज नमवानुं–ढळवानुं
आव्युं.
सिद्ध भगवानने नमस्कार करे तेणे एम जाणवुं जोईए के तेमनुं परिपूर्णज्ञान ईंद्रियोना के पुण्य–पापना
आधारे खील्युं नथी पण अंतरना अनादिअनंत ज्ञानस्वभावना आधारे ज ते ज्ञान खील्युं छे. माटे मारा
ज्ञाननो आधार पण मारो ज्ञानस्वभाव ज छे. कोई विकार के निमित्त मारा ज्ञाननो आधार नथी. जो
शुभभावना आधारे ज्ञान खील्युं एम माने तो पूर्ण थया पछी ते ज्ञान टकी शके नहि केमके त्यां शुभरागनो तो
अभाव छे. जो राग के इन्द्रियोना आधारे ज्ञान थतुं होय तो तो तेमनो अभाव थतां सिद्धने ज्ञाननोय अभाव
थई जाय! माटे जे जीव राग के ईंद्रियोना आधारे ज्ञान माने ते पूर्णज्ञानी एवा सिद्ध भगवानने खरेखर
नमस्कार करी शके नहि एटले के पोताना स्वभाव तरफ ते वळी शके नहि. आत्मानी त्रिकाळी ज्ञानशक्तिना
आधारे ज केवळज्ञान प्रगटे छे एम समजीने, द्रव्यस्वभावनी सन्मुख जईने जे प्रतीत करे तेणे ज अनंत सिद्ध
भगवंतोने खरुं वंदन कर्युं छे.
आ गाथामां ‘वंदित्तु सव्वसिद्धे’ द्वारा कुंदकुंदाचार्यदेवे सर्व सिद्धोने नमस्कार कर्या छे, तेने आजे
लगभग बे हजार वर्ष वीती गया; ते दरमियान पण दरेक छ महिना ने आठ समये छसो ने आठ (६०८) सिद्ध
नवा नवा थया ज कर्या छे; एटले, श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे सिद्धोने वंदन कर्युं त्यारे सिद्धोनी जे संख्या हती तेना
करतां अत्यारे तेमां लाखो सिद्धोनी संख्या वधी गई छे. ते सिद्धभगवंतोने पुण्य–पाप नथी छतां सर्वज्ञपणुं टकी
रह्युं छे, तो ते सर्वज्ञपणुं वस्तुस्वभावना आधारे ज प्रगटयुं छे ने टकयुं छे. आवा सिद्धभगवंतोने वंदन करनार
जीव पोताना पुण्य–पापरहित स्वभावनो आदर अने विश्वास कर्या विना सिद्धोने खरुं वंदन करी शकतो नथी.
‘हुं सिद्धोने वंदन करुं छुं’ एटले के मारी पर्यायमां अल्पज्ञता ने रागद्वेष होवा छतां तेनो आदर न करतां, हुं
पूर्ण वस्तुस्वभावनी सन्मुख जाउं छुं.....वस्तुस्वभावमां परिणमुं छुं.–आनुं नाम स्वभावद्रष्टि–द्रव्यद्रष्टि छे अने
आनुं ज नाम सिद्धने वंदन छे.
सर्वज्ञ भगवानने वर्तमान परसन्मुखतानो कोई विकल्प न होवा छतां सर्वज्ञता टकी छे तो ते सर्वज्ञता
तेमने स्वसन्मुखताथी ज प्रगटी ने टकी छे–एम