मुनिपद नथी, मुनिपद तो संवर–निर्जरारूप दशा छे अने ते दशा चैतन्यस्वभावना आश्रयथी ज प्रगटे छे. तेने
ज अहीं आचार्यदेवे निर्वाणनी भक्ति कही छे ने एवी भक्तिथी ज मुक्ति थाय छे.
शुद्धरत्नत्रयनी भक्ति करनारा ते परम श्रावकोने तेमज परम तपोधनोने जिनवरोए कहेली
छे. आवुं तत्त्व समज्या विना ‘बहारमां छोडो छोडो’ एम करे तेथी कांई श्रावकपणुं के मुनिपणुं आवी जाय
नहि. आत्मामां अंतर्मुख थईने जे शुद्धरत्नत्रयनी आराधना करे तेने ज श्रावकपणुं अने मुनिपणुं होय छे, तथा
ते ज मोक्षनी खरी क्रिया छे. शरीरनी क्रिया तो जडनी छे अने रागनी क्रिया ते आस्रव छे, आत्मस्वभावना
आश्रये पर्याय पलटीने वीतरागी पर्याय प्रगटी जाय ते धर्मक्रिया छे. श्रमणो तेम ज श्रावको आवी क्रिया करे छे;
वच्चे राग होय तेने धर्मनी क्रिया मानता नथी, तेम ज बाह्यमां देहादिनी क्रियाने तेओ पोतानी मानता नथी.
तेमने अनंत चैतन्य दीवडा प्रगटी गया छे, एवा अनंत अनंत जिनेश्वरोए आवी शुद्ध रत्नत्रयनी भक्ति
करनारा श्रमणो तथा श्रावकोने निर्वाण–भक्ति कही छे. स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–स्थिरतारूप शुद्ध रत्नत्रयनी
आराधना ते ज मुक्तिनी भक्ति छे एटले तेना वडे ज मुक्ति थाय छे एम जिनदेवो कहे छे. आवा शुद्ध
रत्नत्रयनी भक्ति करनारा श्रमणो तेमज श्रावको खरेखर भक्त छे....भक्त छे.
जिनमंदिरनुं खातमुहूर्त थयुं हतुं. खातमुहूर्तनो विधि कराववा माटे सोनगढथी ब्र. भाईश्री गुलाबचंदजी आव्या
हता.
मुहूर्त कर्युं हतुं. आवुं मंगलकार्य करवानुं सौभाग्य पोताने मळ्युं ते बदल शेठ मोहनलालभाईए पोतानो
आनंद व्यक्त कर्यो हतो अने आजनी प्रभावना तथा स्वामीवात्सल्यनुं खर्च, तेमज जिनमंदिरना समस्त
प्रतिमाजीओनुं खर्च तेमणे पोताना तरफथी आपवानुं जाहेर कर्युं हतुं. आ उपरांत मोरबीना प्रसिद्ध
कार्यकर्ता डो. जयंतीलाल नरभेराम पारेखे पण आ प्रसंगमां उल्लासपूर्वक भाग लीधो हतो अने आ प्रसंगे
मंगल तरीके रू. १००१ पोताना तरफथी श्री जिनमंदिर–फंडमां आप्या हता. खातमुहूर्त बाद शेठ श्री
मोहनलालभाई तथा रतिलालभाई वगेरेए पोतानो उल्लास व्यक्त करतां जणाव्युं हतुं के ‘मोरबीना
आंगणे भगवान पधारे ते आपणुं अहोभाग्य छे! भगवान अने भगवानना जिन मंदिरने माटे जेटला
तन–मन–धन खरचाय ते सफळ छे.’
स्वाध्याय मंदिर सोनगढ’ एवा नामथी मोकलवा. सरकारी कामोमां अरज–हेवाल वगेरेमां सगवडता रहे.