कहेवा जेवुं ते कथन छे–एम समजवो जोईए. अज्ञानीओ निश्चय वगरनो एकलो व्यवहार माने छे एटले के
‘पहेलो व्यवहार अने पछी निश्चय’ एम माने छे ते मिथ्या छे; व्यवहार करतां करतां निश्चय प्रगटी जशे
अथवा तो व्यवहारना आश्रयथी लाभ थशे–ए मान्यता पण मिथ्या छे; अने जेने एवी मान्यता छे तेने
शुद्धरत्नत्रयनी भक्ति के पडिमा होती नथी. द्रव्यस्वभावनी निश्चयश्रद्धा–ज्ञानपूर्वक तेमां लीन थईने
शुद्धरत्नत्रयनी आराधना करनार श्रावकने परमार्थ भक्ति छे. जेटली चैतन्यमां लीनता थाय तेटली भक्ति छे,
वच्चे राग आवे ते खरेखर भक्ति के धर्म नथी. श्रावकने पण शुद्धरत्नत्रयनी जेटली आराधना छे तेटली
परमार्थ भक्ति छे.
छे, क्षणेक्षणे विकल्पथी छूटीने चैतन्यबिंबमां जामी जाय छे, हमणां केवळज्ञान लीधुं......के..... लेशे.....एवी तेमनी
दशा छे. अहो! संत मुनिओ आत्माना अतीन्द्रिय आनंदकुंडमां झूलता होय छे, एकदम वीतरागता वधी गई छे
ने राग घणो ज छूटी गयो छे, त्यां बाह्यमां वस्त्रादि पण स्वयं छूटी गया छे ने शरीरनी सहज दिगंबर
निर्विकारदशा थई गई छे. आवा भवभयभीरु, परम निष्कर्म परिणतिवाळा परम तपोधनो पण शुद्धरत्नत्रयनी
भक्ति करे छे.
रमणता करवां ते ज भक्ति छे. आवी वीतरागी भक्ति ज मुक्तिनुं कारण छे.
शुद्ध रत्नत्रयनी भक्ति करे छे. पांच परमेष्ठी पदमां भळनारा ने भवभयथी डरनारा एवा वीतरागी मुनिओने
स्वर्गनो भव करवो पडे तेनी पण भावना नथी; हुं तो चिदानंद–चैतन्यबिंब ज्ञायकमूर्ति छुं, राग मारुं कार्य
नथी–एवा भानसहित तेमां घणी लीनता थई गई छे–एवी भावलिंगी संतोनी दशा छे; तेमां हठ नथी पण
स्वभावना आश्रये तेवी सहजदशा थई गई छे; तेओ परम नैष्कर्मवृत्तिवाळा छे एटले के स्वरूपना आनंदमां
एटला बधा ठर्या छे के अशुभ के शुभ कर्मथी उदासीन थई गया छे, रागथी खसीने परिणति अंदरमां वळी गई
छे.–आवा परम वीतरागी संतो पण शुद्ध रत्नत्रयनी भक्ति करे छे, तेने भगवान मोक्षनी भक्ति कहे छे.
अंगनी रचना करे एवुं अपार तेमनुं सामर्थ्य छे. तीर्थंकर भगवान एटले धर्मना राजा, अने गणधरदेव एटले
धर्मना दीवान.–एवा गणधरदेव पण ज्यारे नमस्कारमंत्र बोलीने पंचपरमेष्ठीने भावथी नमस्कार करे त्यारे
वीतरागी आनंदमां झूलता बधा मुनिओ तेमां आवी जाय छे. अहो! गणधरदेव जेने नमस्कार करे ते संतनी
दशा केवी?–ते मुनिपदनो महिमा केटलो! ! मुनिओ पण परमेष्ठी छे. परम चैतन्यपदमां जे स्थिर थया छे तेओ
परमेष्ठी छे. आवा संत–मुनिओ अत्यंत भवभीरु छे, अने रागरहित नैष्कर्म्य परिणतिवाळा छे, बहारना कोई
कामनो बोजो माथे राखता नथी, अंतरना आनंदना अनुभवमां ज तेमनी परिणति लीन छे.–आवा संतो शुद्ध
रत्नत्रयनी भक्ति–आराधना करे छे. अंतरमां शुद्ध रत्नत्रयनी आराधना होय ने बाह्यमां निष्परिग्रही
वीतरागी मुद्रा होय–एवी मुनिनी दशा छे.
वीतरागीचारित्र प्रगटयुं छे तेटली रत्नत्रयनी भक्ति छे. मुनिने पंचमहाव्रत वगेरे जे शुभराग छे ते तो आस्रव
छे, ते कांई