ः १२२ः आत्मधर्मः १०२
हजी जेने उपादान–निमित्तनी भिन्नतानुं पण भान नथी, अने निमित्तने लीधे कार्य थाय, कर्मने लीधे
विकार थाय एम माने छे, तेने तो बे द्रव्योनी एकतानी तीव्र मिथ्याबुद्धि छे. पहेलां स्व–परनी भिन्नतानुं भान
करीने, चिदानंद परमात्म तत्त्वनी श्रद्धा करवी ते सम्यग्दर्शन छे. आ सम्यग्दर्शनरूपी धर्मक्रियानो कर्ता आत्मा ज
छे. केम के
करता परिनामी दरव, करम रूप परिनाम।
किरिया परजयकी फिरनी, वस्तु एक त्रय नाम।।
–नाटक समयसार पृः ८२
–एटले के जे द्रव्य परिणमे छे ते ज कर्ता छे, अने जे परिणाम थाय छे ते ज तेनुं कर्म छे; तथा पर्यायनुं
पलटवुं ते क्रिया छे. आ कर्ता, कर्म अने क्रिया त्रणे एक ज वस्तु छे. आत्मानी सम्यग्दर्शनरूप क्रियानो कर्ता
आत्मा ज छे, आत्माथी भिन्न कोई वस्तु सम्यग्दर्शन वगेरेनुं साधन नथी. आत्मानी क्रियाने कोई पर करतुं
नथी ने परनी क्रियाने आत्मा करतो नथी. आत्मा पोते स्वद्रव्यना आश्रये परिणमतां सम्यग्दर्शनादि कार्यनो
कर्ता थाय छे. पहेलां ज्ञानीना समागमे आवी वस्तुनी ओळखाण–विचार–प्रतीत करवी ते सम्यग्दर्शन माटेनी
पात्रता छे. त्यार पछी श्रावकपणुं अने पडिमा होय.
पडिमाधारी श्रावकोने पण भूमिकानुसार शुद्ध आत्माना रत्नत्रयनी उपासना होय छे, अने ते ज
मोक्षमार्ग छे. मोक्षनी भक्ति कोने होय?–के जे श्रावक तथा श्रमण शुद्ध रत्नत्रयने जे भजे छे तेने ज मोक्षनी
भक्ति छे शुद्ध रत्नत्रयने जे आराधे ते ज मोक्षनो आराधक छे. द्रव्यना आश्रये वीतरागी आचरण थाय तेनुं
नाम भक्ति छे, जेने आवी भक्ति छे ते ज श्रमण के श्रावक छे. जे जीवने आवुं भान नथी अने एकला
शुभरागरूप व्यवहारने ज निश्चयथी मोक्षमार्ग मानी ल्ये छे ते तो उपदेशना श्रवणने पण पात्र नथी.
श्री पुरुषार्थसिद्धिउपायमां कहे छे के–
अबुधस्य बोधनार्थ मुनिश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम्।
व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।।
माणवक एव सिहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य।
व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य।।
अज्ञानीने समजाववा अर्थे असत्यार्थ एवा व्यवहारनयने मुनिराज उपदेशे छे; परंतु जे केवळ
व्यवहारने ज जाणे छे तेने तो उपदेश आपवो ज योग्य नथी. शास्त्रमां व्यवहारनुं कथन आवे त्यां तेने ज पकडी
बेसे, पण तेनो आशय शुं छे ते न समजे, तेवा जीवो देशनायोग्य नथी. जेम कोई साचा सिंहने न जाणतो होय
तेने कोई बिलाडुं बतावीने कहे के ‘जो आवो सिंह होय’ , त्यां ते बीलाडाने ज सिंह मानी बेसे; तेम जे
निश्चयने जाणतो नथी एवो अज्ञानी तो व्यवहारने ज निश्चयपणे मानी ल्ये छे. मोक्षमार्गनी साथे राग वर्ततो
होय तेनुं ज्ञान कराववा माटे रागने व्यवहारथी मोक्षमार्ग कह्यो, त्यां ते रागने ज खरेखर मोक्षमार्ग मानी ल्ये
तो तेवो जीव देशनाने अपात्र छे एटले के ते जीव यथार्थ वस्तु स्वरूप समजी शकशे नहि; हजी सम्यक्त्व अने
श्रावकपणुं के मुनिपणुं तो कयांय दूर रह्युं! चैतन्यद्रव्यमां डूबवाथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र थाय छे,–एम
निर्णय करीने द्रव्यना आश्रये जेटला गुण प्रगटे ते अनुसार पडिमा वगेरे होय छे. श्रावकपणुं अने पडिमा तेम
ज मुनिपणुं ते बधुं अखंड द्रव्यना आश्रये ज प्रगटे छे. बधा श्रावको शुद्ध रत्नत्रयनी भक्ति करे छे. रत्नत्रय
अने रत्नत्रयनी भक्ति ए बे जुदी चीज नथी, द्रव्यना आश्रये जेटला रत्नत्रय प्रगटया तेटली रत्नत्रयनी
भक्ति छे. चैतन्यना आश्रये रत्नत्रयना गुण अनुसार श्रावकना अगियार पदो होय छे, अने विशेष उग्रपणे
चैतन्यनो आश्रय करतां मुनिदशा तथा केवळज्ञान प्रगटे छे. धर्मनी शरूआतथी पूर्णता सुधी एक मात्र
चैतन्यस्वरूप सिवाय बीजा कोईनो आश्रय नथी.
व्यवहारना आश्रयथी जे लाभ माने छे ते तो अनादिना रूढ व्यवहारमां मूढ छे; ने निश्चयमां अनारूढ
छे. निश्चय विनानो एकलो व्यवहार तो अनादिथी करतो आव्यो छे तेथी अज्ञानीनो व्यवहार तो अनादिरूढ छे.
अज्ञानी अने अभव्य पण अनादिकाळथी शुभराग तो करतो ज आव्यो छे, तेने ‘प्रथम व्यवहार’ कई रीते
कहेवो? ते तो खरेखर व्यवहार ज नथी. स्वभावना आश्रये निश्चय प्रगट करीने रागनो निषेध करे त्यारे ते
निश्चय सहितना रागने व्यवहार कहेवाय छे. अंतरमां स्वभावनुं भान करीने तेना आश्रये वीतरागी निश्चय
मोक्षमार्ग प्रगट कर्यो त्यारे रागने उपचारथी–व्यवहारथी मोक्षमार्ग कहेवाय छे.–पण ‘उपचार’ नो अर्थ ज
‘खरेखर ते मोक्षमार्ग नथी’, परंतु बिलाडाने सिंह