आराधना होय छे, निश्चयश्रद्धा–ज्ञान अने अंशे वीतरागी चारित्र तेने पण होय छे. स्वभावना ध्यान वडे जे
निर्मळपर्याय परिणमी तेनुं नाम रत्नत्रयनी आराधना अने भक्ति छे.–आवी भक्तिथी मुक्ति थाय छे.
श्रद्धा करवी ते सम्यग्दर्शन छे अने ते श्रावकोनुं पहेलुं लक्षण छे. वळी ते निज परमात्मतत्त्वनुं ज्ञान ते
सम्यग्ज्ञान छे तथा तेमां लीनता ते सम्यक्चारित्र छे; आवा शुद्ध रत्नत्रय परिणामोनुं भजन ते भक्ति छे.
आवी भक्ति श्रावको तेमज श्रमणोने होय छे. आ रत्नत्रयनुं भजन एटले के वीतरागी परिणति ते ज साची
भक्ति छे, पोताथी भिन्न बहारना भगवाननी शुभरागरूप भक्ति ते तो व्यवहार छे, पण अंदर जो शुद्ध
रत्नत्रयरूप निश्चयभक्ति होय तो ते शुभ–रागने व्यवहार भक्ति कहेवाय. निज परमात्मानी निश्चय भक्ति
होय तो ते शुभरागने व्यवहार भक्ति कहेवाय. निज परमात्मानी निश्चय भक्ति होय त्यां पर परमात्मानी
भक्तिने व्यवहार कहेवाय; पण पोताने भूलीने एकला परनी भक्तिमां ज धर्म माने तेने तो ते व्यवहार पण न
कहेवाय. शुद्ध रत्नत्रयनी भक्ति करवी एटले के तेनी आराधना करवी ते मोक्षनो मार्ग छे. चैतन्य स्वभावना
श्रद्धा–ज्ञान–रमणतारूप परिणति ते ज आराधना अने भक्ति छे.
सम्यग्दर्शनपूर्वक शुद्ध रत्नत्रयनी आराधना करे छे; अगियारे पडिमामां शुद्ध रत्नत्रयनी भक्ति छे. आ सिवाय
रागनी आराधना करे एटले के रागथी धर्म थाय एम माने तो तेने श्रावकपणुं होतुं नथी. जडनी क्रिया जडथी
थाय छे, तेनो कर्ता पोताने माने ते तो मिथ्याद्रष्टि छे तेम ज पूजा–भक्ति–शुद्ध आहार वगेरेना शुभरागने धर्म
मानी ल्ये तो ते पण मिथ्याद्रष्टि छे. शुद्ध आहार तथा व्रतादिना शुभरागने व्यवहार कहेवाय,–पण कयारे? के
ज्यारे अंतरमां शुद्ध रत्नत्रयनी आराधना प्रगटी होय त्यारे; स्वभावना आश्रये जेने शुद्ध रत्नत्रयनी
आराधना नथी प्रगटी तेने तो निश्चय पडिमा वगेरे नथी तेथी व्यवहार पण तेने होतो नथी. अहो! एक ज
अबाधित मार्ग छे के जेटलुं अंतर स्वभावनुं अवलंबन तेटलो धर्म. बहिर्मुख वलणथी जे भाव थाय ते धर्म
नहि.
वृद्धि थती जाय छे; तेनुं नाम पडिमा छे. द्रव्यस्वभावना आश्रये ज रत्नत्रय पर्याय थाय छे, रागथी के
निमित्तना आश्रयथी सम्यग्दर्शनादि थतां नथी;–आवुं जेने भान पण नथी ने पराश्रयभावथी धर्म माने छे ते
तो अज्ञानी छे, तेने पडिमा केवी? त्रिकाळी चिदानंद द्रव्यना आश्रये निर्मळ रत्नत्रय पर्याय प्रगटी तेनुं नाम
भगवाननुं भजन छे.
ओळखीने रत्नत्रयवडे तेनी भक्ति–आराधना–उपासना करवी ते धर्म छे. देव–गुरु–शास्त्र पण एम ज कहे छे
के तुं अमारा उपरनुं लक्ष छोडीने तारा आत्मानुं भजन कर, तारो आत्मा ज पूर्ण शक्तिमान परमात्मा छे तेने
ओळखीने तेनुं भजन कर. जे जीव ए प्रमाणे करे ते ज पोताना आत्मानो खरो भक्त छे अने ते ज व्यवहारथी
देव–गुरुनो खरो भक्त छे.
जीते ते जैन छे. जेणे रागने ज धर्म मान्यो ते रागने कयांथी जीती शकशे? हुं ज्ञानस्वरूप छुं, राग ते मारुं स्वरूप
नथी–एवुं भान करे तो तेना आश्रये रागने जीती शके. ‘रागने जीतवो’ ते पण नास्तिथी कथन छे. खरेखर
कांई राग थाय छे अने तेने जीते छे–एम नथी; परंतु अंतरमां ज्ञान–स्वभावनी द्रष्टि करीने तेमां ठरतां
रागादिनी उत्पत्ति ज नथी थती, त्यां ‘रागने जीत्यो’ एम कहेवामां आवे छे. जेने शुद्ध आत्मानुं भान नथी
तेने तेनुं भजन नथी अने तेने पडिमा वगेरे होतुं नथी.