साची भक्ति छे; अने त्यां बहारना भगवाननी भक्तिनो शुभराग ते व्यवहार भक्ति छे.
आराधना तेटलो धर्म छे, श्रावकने पण रागथी धर्म थतो नथी. जेटलो स्वभावनो आश्रयभाव तेटली
रत्नत्रयनी भक्ति छे अने ते ज धर्म छे. अहीं आचार्यदेव आवी भक्तिनुं घणुं सरस वर्णन करे छे–
निर्वाणनी छे भक्ति तेने एम जिनदेवो कहे. १३४.
भक्ति ते ज मोक्षना कारणरूप भक्ति छे. परनी भक्ति करवाथी शुभराग थाय छे. स्वभावनी भक्ति करवाथी
मुक्ति थाय छे. स्वभावनी निर्विकल्प श्रद्धा–ज्ञान करी तेमां लीन थवुं तेनुं नाम स्वभावनी भक्ति छे अने ते ज
रत्नत्रयनी आराधना छे.
‘शुद्ध रत्नत्रय’ बताववा छे तेथी पोताना परमात्मतत्त्वनी श्रद्धा–ज्ञान–रमणतानी ज वात लीधी छे, देव–गुरु–
शास्त्रनी श्रद्धा वगेरेमां तो शुभराग छे, तेथी तेनी वात नथी लीधी. जे जीव चैतन्यमूर्ति परमात्मानी भक्ति
नथी करतो–तेनां श्रद्धा–ज्ञान–रमणता नथी करतो, ते ज मिथ्यात्व प्रकृतिमां जोडायो थको चार गतिमां रखडे छे.
अहीं तो चारे गतिमां परिभ्रमणनुं मूळ कारण मिथ्यात्वने ज गण्युं छे, सम्यग्दर्शन थया पछी एकाद बे भव
होय तेनी कांई गणतरी नथी. स्वभावने भूलीने मिथ्यात्वमां जोडावुं ते चारगतिमां भ्रमणनुं मूळ छे, अने ते
मिथ्यात्व–कर्मथी विरुद्ध एवो आत्मानो परमानंद स्वभाव छे ते चार गतिना मूळने ऊखेडी नांखनार छे; आवा
निज परमात्मतत्त्वनां सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–आचरण ते शुद्धरत्नत्रय छे. एवा शुद्धरत्नत्रयनुं भजन–आराधन ते
भक्ति छे. अहीं व्यवहार–रत्नत्रयना भजननी वात न लीधी; केम के व्यवहाररत्नत्रयमां शुभराग छे ते खरेखर
मोक्षनुं कारण नथी; अंतरमां निज परमात्मतत्त्वनां श्रद्धान–ज्ञान–आचरणरूप निश्चयरत्नत्रयनी आराधना–
भक्ति ते ज मोक्षनुं कारण छे.
अने स्थापनानय– पण भिन्न भिन्न छे. – ए प्रमाणे अत्यार सुधीमां तेर नयोथी आत्मानुं वर्णन कर्युं; हवे चौदमा द्रव्यनयथी
आत्मा केवो छे ते कहे छे. तेमां घणी सरस वात आवशे.