Atmadharma magazine - Ank 102
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः १२०ः आत्मधर्मः १०२
श्रावको अने श्रमणो कोनी भक्ति करे?
परम भागवत श्री नियमसारना परमभक्ति अधिकारनी १३४ मी गाथा उपर पू. गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन
(वीर सं. २४७८ माह सुद ४)
आ भागवत शास्त्रमां भक्ति अधिकार वंचाय छे. भगवान आत्मानुं भजन करवुं तेनुं नाम भक्ति छे.
अंतरमां अखंड चिदानंदी भगवान आत्मानुं भजन करवुं एटले के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगट करवां ते ज
साची भक्ति छे; अने त्यां बहारना भगवाननी भक्तिनो शुभराग ते व्यवहार भक्ति छे.
जुओ, आ अधिकारमां मुनिओ तेम ज श्रावको बंनेनी वात लीधी छे. कोई एम समजे के मुनिओनो
धर्म बीजो हशे अने श्रावकोनो धर्म बीजो हशे–तो तेम नथी. मुनि हो के श्रावक हो, जेटली शुद्धरत्नत्रयनी
आराधना तेटलो धर्म छे, श्रावकने पण रागथी धर्म थतो नथी. जेटलो स्वभावनो आश्रयभाव तेटली
रत्नत्रयनी भक्ति छे अने ते ज धर्म छे. अहीं आचार्यदेव आवी भक्तिनुं घणुं सरस वर्णन करे छे–
श्रावक श्रमण सम्यक्त्व–ज्ञान–चारित्रनी भक्ति करे,
निर्वाणनी छे भक्ति तेने एम जिनदेवो कहे. १३४.
जे श्रावक अथवा श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्रनी भक्ति करे छे तेने निर्वाणनी
भक्ति छे एम जिनेन्द्र भगवंतोए कह्युं छे.
स्वभावना आश्रये रत्नत्रयनो भाव ते ज भक्ति छे, राग ते खरेखर भक्ति नथी. श्रावकने पण
पोताना त्रिकाळी चैतन्य भगवानना आश्रये सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी भक्ति होय छे; आवी रत्नत्रयनी
भक्ति ते ज मोक्षना कारणरूप भक्ति छे. परनी भक्ति करवाथी शुभराग थाय छे. स्वभावनी भक्ति करवाथी
मुक्ति थाय छे. स्वभावनी निर्विकल्प श्रद्धा–ज्ञान करी तेमां लीन थवुं तेनुं नाम स्वभावनी भक्ति छे अने ते ज
रत्नत्रयनी आराधना छे.
भक्ति एटले भजन करवुं; धर्मी जीव कोनुं भजन करे? धर्मी श्रावको अने श्रमणो पोताना आश्रये
शुद्धरत्नत्रयनुं भजन करे छे, तेओ ज खरा भक्त छे.
चतुर्गति संसारमां परिभ्रमणना कारणभूत जे तीव्र मिथ्यात्व कर्मनी प्रकृति तेनाथी प्रतिपक्ष निज
परमात्मतत्त्वनां सम्यक् श्रद्धान के अवबोध–आचरणस्वरूप शुद्धरत्नत्रय परिणामोनुं भजन ते भक्ति छे. अहीं
‘शुद्ध रत्नत्रय’ बताववा छे तेथी पोताना परमात्मतत्त्वनी श्रद्धा–ज्ञान–रमणतानी ज वात लीधी छे, देव–गुरु–
शास्त्रनी श्रद्धा वगेरेमां तो शुभराग छे, तेथी तेनी वात नथी लीधी. जे जीव चैतन्यमूर्ति परमात्मानी भक्ति
नथी करतो–तेनां श्रद्धा–ज्ञान–रमणता नथी करतो, ते ज मिथ्यात्व प्रकृतिमां जोडायो थको चार गतिमां रखडे छे.
अहीं तो चारे गतिमां परिभ्रमणनुं मूळ कारण मिथ्यात्वने ज गण्युं छे, सम्यग्दर्शन थया पछी एकाद बे भव
होय तेनी कांई गणतरी नथी. स्वभावने भूलीने मिथ्यात्वमां जोडावुं ते चारगतिमां भ्रमणनुं मूळ छे, अने ते
मिथ्यात्व–कर्मथी विरुद्ध एवो आत्मानो परमानंद स्वभाव छे ते चार गतिना मूळने ऊखेडी नांखनार छे; आवा
निज परमात्मतत्त्वनां सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–आचरण ते शुद्धरत्नत्रय छे. एवा शुद्धरत्नत्रयनुं भजन–आराधन ते
भक्ति छे. अहीं व्यवहार–रत्नत्रयना भजननी वात न लीधी; केम के व्यवहाररत्नत्रयमां शुभराग छे ते खरेखर
मोक्षनुं कारण नथी; अंतरमां निज परमात्मतत्त्वनां श्रद्धान–ज्ञान–आचरणरूप निश्चयरत्नत्रयनी आराधना–
भक्ति ते ज मोक्षनुं कारण छे.
भक्ति एटले आराधना; शुद्ध रत्नत्रयनी भक्ति एटले के शुद्ध रत्नत्रयनी आराधना. मुनिवरो शुद्ध
रत्नत्रयने आराधे छे, अने श्रावकोने पण रत्नत्रयनी अमुक
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नाम वडे जणाय तेवो धर्म जुदो छे ने स्थापनाथी जणाय तेवो धर्म जुदो छे, तेमज ते बंने धर्मोने जाणनार बे नयो– नामनय
अने स्थापनानय– पण भिन्न भिन्न छे. – ए प्रमाणे अत्यार सुधीमां तेर नयोथी आत्मानुं वर्णन कर्युं; हवे चौदमा द्रव्यनयथी
आत्मा केवो छे ते कहे छे. तेमां घणी सरस वात आवशे.