Atmadharma magazine - Ank 103
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः १४४ः आत्मधर्मः १०३
नी संभाळ करीने साधक कहे छे के मारा शांति परिणामने फेरववा त्रणकाळ त्रणलोकमां कोई समर्थ नथी; मारी
प्रभुत्वशक्ति स्वाधीन छे, जगतनो कोई संयोग मारी प्रभुताने तोडवा समर्थ नथी. मारा स्वरूपमां पराधीनता
नथी, संयोगथी पराधीनता नथी, ने परिणति संयोगथी खसीने स्वरूपमां अभेद थई तेमां पण पराधीनता
नथी,–ए रीते साधकने क्यांय पराधीनता छे ज नहि.
ज्ञानीनी द्रष्टि आत्माना त्रिकाळी अखंड प्रताप उपर छे, तेमां अपूर्णतानो ने विकारनो तो निषेध
छे ज, निषेध करवो नथी पडतो. आत्माना दरेक गुणो पण अखंड प्रतापथी शोभी रह्या छे, ने पर्याय पण
स्वतंत्र प्रतापथी शोभे छे; एटले शास्त्रथी ज्ञान थाय, अथवा व्यवहाररत्नत्रयनो शुभराग करतां करतां
निश्चयरत्नत्रय थाय ए वात रहेती नथी. आत्मस्वरूप द्रव्य–गुण पर्यायनो प्रताप स्वतंत्रताथी ज शोभे
छे, परतंत्रताथी शोभतो नथी. आत्मानी एवी प्रतापवंती संपदा छे के सिद्ध जेवी संपदाने पोतामांथी
प्रगट करे.
‘मने मारा आत्मानी मोटप नथी जणाती’ एम कहेनारो रुचिनी ऊंधाईथी पोतानी मोटपने
स्वीकारतो नथी. ते अज्ञानी पोतानी प्रभुताने भूलीने, काळ–कर्म–निमित्त वगेरे परने प्रभुता आपे छे ने
पोताने पामर माने छे. पण भाई! एटलो तो विचार कर के परने प्रभुता आपनारो कोण छे? परने प्रभुता
आपनारो पोते प्रभुताथी खाली न होय. तारी प्रभुतानो तें परमां आरोप करी दीधो छे, खरेखर तो तारामां ज
तारी प्रभुता भरी छे. सिद्ध भगवंतोने जे प्रभुता प्रगटी ते कयांथी प्रगटी?–आत्मामांथी ज प्रगटी के बहारथी?
सिद्ध भगवानने जे प्रगटी ते आत्मामांथी ज प्रगटी छे अने एवुं ज सामर्थ्य तारामां पण भर्युं छे. आवी
पोतानी प्रभुतानी प्रतीत करतां पोते प्रभु थई जाय छे, ने प्रभुतानी ना पाडीने नमालो माननार निगोदमां
जाय छे. प्रभुतानी प्रतीतमां प्रभुता छे ने नबळाईनी ज प्रतीतमां निगोद छे. माटे हे भाई! तुं आवा प्रभुताथी
भरेला आत्मानी प्रतीत कर के जेना प्रतापमां कदी खंड न थाय ने सिद्ध पद मळ्‌या वगर रहे नहि.–आवुं तारी
प्रभुतानुं मांगळिकपणुं छे. प्रभुत्व शक्ति अने आत्मा त्रिकाळ अभेद छे, तेनी प्रतीत करतां पर्यायमां मंगळ
थाय छे.
साधकने पर्यायमां अल्प राग थाय तेना उपर द्रष्टि नथी, ते राग वखते य स्वभावना अखंड
प्रताप उपर द्रष्टि पडी छे; स्वभावनी प्रभुताने भूलीने कदी रागनी मुख्यता तेनी द्रष्टिमां थती नथी,
राग वखते रागनी अधिकता नथी पण प्रभुतानी ज अधिकता छे, प्रभुतानी प्रतीत करीने तेमां द्रष्टि
परिणमी गई छे. आवी प्रभुतानी द्रष्टि वगर धर्म थतो नथी. आत्मा पोतानी प्रभुताथी कदी जुदो पडतो
नथी; राग तो बीजी क्षणे छूटी जाय छे तेथी तेनी साथे खरेखर आत्माने एकता नथी, ने परथी तो
त्रिकाळ जुदो ज छे. आ रीते, प्रभुताने स्वीकारतां ज राग अने पर साथेनी एकताबुद्धिनुं परिणमन
छूटीने त्रिकाळी स्वरूपमां एकतारूप परिणमन थाय छे, एटले पोतानी प्रभुताने स्वीकारतां जीव प्रभु
थाय छे.
अहो! भगवन! तारी प्रभुता तुं बहारमां कयां शोधे छे? तारी प्रभुता तो तारा द्रव्य–गुण–
पर्यायमां छे, तारा असंख्य प्रदेशी तत्त्वमां अनंत गुणोनी प्रभुता भरेली छे; तेनो अचिंत्य महिमा
प्रतीतमां लेतां दुनियानो महिमा टळीने अंतर्मुख दशामां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगटीने मुक्ति थई
जाय छे.
‘जय हो..... आत्मानी प्रभुतानो!’
अहीं सातमी प्रभुत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
आत्मानी विभुतानुं वर्णन आवता अंके वांचो.
*