Atmadharma magazine - Ank 103
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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वैशाखः २४७८ः १४३ः
आत्मानी स्वतंत्रतानो प्रताप अखंडित छे, ते कोईथी खंडित करी शकातो नथी. घातिकर्मोथी पण
आत्मानो प्रताप हणातो नथी; पूर्वना घणां पापो वर्तमान पर्यायना प्रतापने खंडित करता नथी,–एवी
पर्यायनी स्वतंत्र प्रभुता छे.
श्री तीर्थंकरो एम कहे छे के जेवा अमे तेवो तुं. कोई वात न समजाय एवुं तारा ज्ञान स्वरूपमां छे ज
नहि, बधुं ज समजवानी तारा ज्ञाननी ताकात छे. जो कांई पण न समजाय तेवुं होय तो तो ज्ञाननो प्रताप
खंडित थई जाय. माटे हे जीव! तुं विश्वास कर के मारा ज्ञानमां केवळज्ञान जेटली पूरी ताकात भरी छे. तुं
तारामां ने मारामां भेद न पाड. जेणे आत्मानी प्रभुता भूलीने तीर्थंकरने मोटप आपी ते पोतानी प्रभुता
लावशे क्यांथी?
‘दीन भयो प्रभु पद जपे रे, मुक्ति कहांसे होय?’
पोते दीन थईने पारकानी प्रभुताने जप्या करे, पण पोते पोतानी प्रभुताने न स्वीकारे तो मुक्ति
क्यांथी थाय? जेवा सिद्ध तेवो ज हुं, सिद्धमां अने मारामां कांई फेर नथी–एम पोतानी परमात्म शक्तिनो
विश्वास अने उल्लास आव्या विना मुक्ति थवी हराम छे. जो लाकडाने के मडदांने धर्म थाय तो देहनी क्रियाथी
धर्म थाय! जो देहनी क्रियाथी धर्म थतो होय तो तो सौथी पहेलां देहने ज धर्म अने मुक्ति थाय! देह तो जड छे,
तेमां चैतन्यनो धर्म छे ज नहि, तो तेनी क्रिया वडे आत्माने धर्मनो लाभ क्यांथी थाय?–
‘मूलंनास्ति कुतः
शाखा?’ आत्मा पोते अनंत धर्मोनो भंडार छे, तेनी ज क्रियाथी एटले के तेना आश्रये परिणमनथी ज धर्म
थाय छे.
कोई तीर्थंकर भगवान उपर, गुरु उपर के सिद्ध भगवान वगेरे परनी प्रभुता उपर धर्मीनी द्रष्टि नथी,
पोतानी नबळी पर्याय उपर पण तेनी द्रष्टि नथी, प्रभुत्वशक्तिना अखंड पिंड एवा पोताना आत्मा उपर ज
धर्मीनी द्रष्टि छे, तेनो ज महिमा, तेनी ज रुचि अने तेनी ज मुख्यता छे, तेनी मुख्यतानो भाव छूटीने कदी
बीजानो महिमा आवतो नथी. अज्ञानी जीव एक समयना विकार जेटलो ज आखो आत्मा माने छे, मारामां
प्रभुता नथी पण हुं तो पामर छुं एम ते माने छे एटले पोतानी प्रभुताने चूकीने परने प्रभुता आपी–आपीने
ते संसारमां रखडे छे. आचार्यदेव समजावे छे के अहो! आत्मामां त्रिकाळ पोतानी प्रभुता छे, सिद्ध भगवान
जेवी ज आत्मानी प्रभुता छे तेमां जराय फेर नथी. हे भाई! जे प्रभुता तुं बीजाने आपे छे ते प्रभुता तो
तारामां ज भरी छे; माटे बहारमां जोईने सिद्धनो महिमा करवा करतां तारा अंतरमां ज सिद्धपणानी ताकात
भरी छे तेनो विश्वास अने महिमा कर. तारो प्रभु तुं ज छो, कोई बीजो तारो प्रभु नथी. आत्मामां अंतर्मुख
थईने प्रतीत कर के हुं ज मारो प्रभु छुं; मारा स्वभाव सिवाय बीजा कोईनी प्रभुता मारामां नथी; मारामां
रागनी के एकली पर्यायनी पण प्रभुता नथी. त्रिकाळ अखंड स्वभाववाळो मारो आत्मा ज स्वतंत्रताथी
शोभित प्रभु छे.–जुओ, आनुं नाम स्वतंत्रता अने स्वराज्य छे; आ सिवाय बीजुं बधुं थोथेथोथां छे.
* कोई कहे के अरे! देश पराधीन......नेताओ जेलमां.....छतां कहेवुं के आत्मा स्वाधीन.....ए कई रीते?
तो कहे छे के अरे भाई! आत्माने बहारनी पराधीनता छे ज कयां? आत्माने कोई राजा पराधीन करी शके
नहि, मोंघवारीथी आत्मा पराधीन थाय नहि, गमे तेटली प्रतिकूळतामां य स्वाधीन शांतिने छोडेनहि एवो
आत्मानो स्वभाव छे. राजा भले जेलमां पूरे पण जेलमां बेठो बेठो आत्माना ध्याननी श्रेणी मांडे तो अंदर
कोण रोकनारुं छे? स्वभावनो आश्रय करीने जे निर्मळ प्रभुता प्रगटी तेना प्रतापने खंडित करनार जगतमां
कोई संयोग छे ज नहि.
आत्मा द्रव्यद्रष्टिए स्वाधीन छे ने पर्यायद्रष्टिए पराधीन छे–एम समयसार नाटकमां कह्युं छे, त्यां एम
नथी कह्युं के कर्म जीवने पराणे पराधीन करे छे; परंतु अज्ञानी जीव पोतानी प्रभुताने भूलीने स्वभावनी
आधीनता चूक्यो तेथी पर्यायद्रष्टिमां ते पराधीन थयो छे, एम त्यां कह्युं छे. परंतु आ शक्तिओना वर्णनमां तो
‘आत्मा पोते पोतानी मेळे पराधीन थयो छे’ ए वात पण नथी. अहीं तो साधकनी वात छे; साधक जीव
आत्मानी प्रभुतामां पराधीनताने भाळतो ज नथी. पोतानी प्रभुता–
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ई. स. १९४४मां थयेला छठ्ठी वखतना समयसार–प्रवचनोनो आ भाग छे.