Atmadharma magazine - Ank 103
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः १४६ः आत्मधर्मः १०३
गुणस्थान वृद्धि
अर्थात् धर्मवृद्धिनी रीत
(अभेद आत्मस्वभावना आश्रये ज धर्मनी धीकती धारा)
अभेद आत्मस्वभावना आश्रये ज वीतरागी धर्म प्रगटे छे, एना आश्रये ज धर्म वधे छे ने एना
आश्रये ज पूर्णता थाय छे; आ सिवाय शरीरादिनी कोई क्रियाथी के व्रत वगेरेना शुभ परिणामथी धर्मनी
शरूआत थती नथी, तेनाथी धर्मनी वृद्धि पण थती नथी ने पूर्णता पण थती नथी. धर्मनी शरूआतथी मांडीने
पूर्णता सुधी पोताना शुद्ध आत्मद्रव्य सिवाय बीजा कोईनुं अवलंबन नथी. वच्चे साधक दशामां परना
अवलंबननो भाव आवी जाय पण ते धर्म नथी–एम धर्मी समजे छे.
ज्यां सुधी निमित्त उपर, राग उपर के भेद उपर द्रष्टि रहे त्यां सुधी आत्मानुं सम्यक्दर्शन थतुं नथी.
ज्यारे निमित्त, राग अने भेद ए त्रणेनी उपेक्षा करीने अभेद आत्मस्वभावनी सन्मुख थाय त्यारे ज निर्विकल्प
सम्यग्दर्शन वगेरे प्रगटे छे. भेद उपरनी द्रष्टिथी निर्विकल्पदशा थती नथी पण राग थाय छे; तेथी ज्यां सुधी
रागादिक मटे नहि त्यांसुधी भेदने गौण करीने अभेद आत्मस्वरूपनो निर्विकल्प अनुभव कराववामां आव्यो छे.
अभेदनी मुख्यता ने भेदनी गौणता करीने स्वभाव तरफ ढळतां शुद्ध आत्मानी प्राप्ति थाय छे. गुणस्थाननी
वृद्धि अभेद स्वभावना आश्रये ज थाय छे. जो द्रष्टिमांथी एक क्षण पण अभेदस्वभावनो आश्रय छूटे तो
धर्मदशा टकती नथी.
प्रथम चोथुं गुणस्थान अभेद निर्विकल्प अनुभवथी ज प्रगटे छे. त्यारपछी चोथुं पलटीने पांचमुं
गुणस्थान पण अभेदस्वभावना ज विशेष अनुभवथी प्रगटे छे. कोई व्रतादिना शुभ परिणामथी पंचम
गुणस्थान प्रगटी जतुं नथी पण अभेदस्वभावना निर्विकल्प अनुभवथी ज चोथुं पलटीने पांचमुं
गुणस्थान प्रगटी जाय छे. त्यारपछी आगळ वधतां सातमुं, आठमुं–नवमुं–दसमुं बारमुं वगेरे
गुणस्थानो पण एवा ज अभेद अनुभवथी प्रगटे छे. आ रीते अभेद स्वभावना आश्रये ज धर्मनी
धारा चाली जाय छे. धर्मना नानामां नाना अंशथी मांडीने पूर्णता सुधीना जेटला प्रकारो पडे ते
बधायमां अभेदस्वभावनुं एकनुं ज अवलंबन छे, ए सिवाय भेदनुं–विकारनुं के निमित्तोनुं अवलंबन
धर्ममां कदी छे ज नहि.
सौथी पहेलां आत्मस्वभावनो जेवो अचिंत्य महिमा छे तेवो ओळखीने, ते स्वभावना ज
अवलंबने निर्विकल्प अनुभवथी सम्यग्दर्शनरूप चोथुं गुणस्थान प्रगटे छे, त्यांथी धर्मनी अपूर्व शरूआत
थाय छे, एटले के साधकभाव शरू थाय छे. त्यार पछी आगळ–आगळनी साधकदशा पण ते
अभेदस्वभावना ज निर्विकल्प अनुभवथी प्रगटे छे. चोथा गुणस्थाने व्रतादिना घणा शुभ परिणाम करे
तेथी पांचमु गुणस्थान प्रगटी जाय–एम नथी, पण आत्माना अभेदस्वभावनुं उग्र अवलंबन लेवाथी ज
गुणस्थाननी वृद्धि थाय छे. गुणस्थाननी वृद्धि कहो, धर्मनी वृद्धि कहो, साधकभावनी वृद्धि कहो के मोक्षमार्ग
कहो–तेनी रीत एक ज छे के अखंड आत्मस्वभावनुं अवलंबन करवुं. माटे शरूआतथी मांडीने ज्यां सुधी
रागादिक मटीने केवळज्ञान थाय त्यां सुधी ते अभेद स्वभावने मुख्य करीने तेना ज निर्विकल्प अनुभवनो
उपदेश श्री गुरुओए कर्यो छे.
वीर सं. २४७७ अषाड वद ४
श्री समयसार गा. ७ भावार्थ उपरना प्रवचनमांथी
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