: श्रावण : २००८ : आत्मधर्म–१०६ : २०५ :
‘आंखो फाडीने टगटग जोई ज रहे छे’
[जिज्ञासु शिष्यनी पात्रता]
जे जीव अज्ञानी छे, जेणे कदी आत्माना परमार्थस्वरूपने अनुभव्युं नथी, पण हवे जेने शुद्ध
आत्मस्वरूप समजवानी झंखना जागी छे एवा पात्र शिष्यने श्रीगुरु आत्मानुं परमार्थस्वरूप समजावे छे. ते
शिष्यने ‘आत्मा’ एवो शब्द कहेवामां आवतां, जेवो ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ छे ते अर्थना ज्ञानथी रहित
होवाथी कांई पण न समजतां मेंढानी जेम आंखो फाडीने टगटग जोई ज रहे छे....... जुओ, अहीं आचार्यदेव
जिज्ञासु शिष्यनी पात्रता बतावे छे. शिष्य हजी आत्माने समज्यो नथी पण समजवानो कामी छे, तेथी
समजावनार ज्ञानी प्रत्ये मेंढानी जेम टगटग जोई ज रहे छे. अहीं मेंढानुं द्रष्टांत शिष्यनी जिज्ञासा बताववा
माटे आप्युं छे. मेंढानुं द्रष्टांत दोष बताववा माटे नथी पण गुण बताववा छे; जेम मेंढामां अनुसरवानी टेव छे
तेम शिष्य पण सामे समजावनार ज्ञानीना भावने अनुसरवा मांगे छे. पोते नथी समजतो तेथी सामा उपर
कंटाळो नथी लावतो पण समजवानी जिज्ञासाथी तेनी सामे टगटग जोई ज रहे छे.
‘आंखो फाडीने टगटग जोई ज रहे छे’ एम कहेवामां आचार्यदेवे घणा भावो मूकी दीधा छे. प्रथम तो
समजवानी जिज्ञासा छे एटले चित्तने क्यांय आडुं अवळुं भमावतो नथी पण समजवा माटे चित्तने एकाग्र करे
छे. पोताने नथी समजातुं तेमां सामा कहेनारनो वांक नथी काढतो, पण समजवा माटे पोते ज्ञाननी विशेष
एकाग्रता करे छे. वळी पोते कांई समजतो नथी तोपण टगटग जोई ज रहे छे–तेमां तेने एटलो तो विश्वास छे
के आ मारुं हित थाय एवुं कांईक कहेवा मांगे छे, एटले ज्ञानी कहे छे ते वात मारे समजवा जेवी छे; आथी
समजवा माटे पोताना बधाय ज्ञानने आत्मा तरफ एकाग्र करे छे. ‘आंखो फाडीने टगटग जोई ज रहे छे’ एम
कह्युं, तेमां बहारनी आंखो तो व्यवहारथी छे, खरेखर जोवानुं कार्य तो अंतरना ज्ञानचक्षु करे छे, एटले के
ज्ञाननो जे क्षयोपशम ऊघडयो छे तेने हवे पाछो वाळतो नथी पण ते क्षयोपशमज्ञानने आत्मा तरफ एकाग्र करे
छे. अने निमित्त तरीके कहीए तो आत्मानुं स्वरूप संभळावनार ज्ञानीनी सामे टगटग जोई ज रहे छे–एटले
एनाथी विरुद्ध कहेनारा कुगुरुओनी वात सांभळवा मांगतो नथी, तेम ज बहारनां विषय–कषायमां पण
चित्तने भमावतो नथी; बस, मात्र आत्मा ज समजवा मांगे छे. – ‘काम एक आत्मार्थनुं, बीजो नहि मन
रोग’ –आटली पात्रता तो श्रोतामां थई गई छे–एम स्वीकारीने श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे समयसारमां शुद्धआत्मानुं
स्वरूप समजाव्युं छे. आवो शिष्य पोताना ज्ञानने शुद्धआत्मा तरफ एकाग्र करीने स्वरूपना सहज आनंदनो
अनुभव करे ज.
प्रथम आचार्यदेवे आत्मामां सिद्धपणुं स्थाप्युं के ‘हुं सिद्ध अने तुं पण सिद्ध!’ आत्माना सिद्धपणानी ते
वात सांभळतां ज जेने अंतरथी होंश अने उत्साह आव्यो तेवा जीवनी आत्मा समजवा माटेनी चेष्टा जोईने
श्री आचार्यभगवाने नक्की कर्युं के आ जीवने आत्मा समजवानी धगश अने पात्रता छे, तेथी तेने ‘आत्मा’
समजावे छे. अने ते जीव ज्ञानना क्षयोपशमरूपी जे आंख ऊघडी छे तेने बंध करतो नथी, पण ते बधा ज्ञानने
आत्मा तरफ एकाग्र करे छे. –आवा लायक आत्मामां धर्मनुं बीज रोपाय छे, ने ते जीवमां तरत देशनालब्धिनुं
परिणमन थईने ते आत्माना आनंदनो अनुभव करे छे.
आत्मानुं यथार्थ स्वरूप समज्या विना ज हुं अत्यार सुधी दुःखमां रखड्यो, आत्मस्वरूप समजवामां ज
मारुं हित छे–एम जेने अंतरमां भासे तेनुं ज्ञान आत्मा तरफ वळ्या वगर रहे नहि. जिज्ञासु जीवने श्रवणमां
बेदरकारी के निरुत्साहभाव न होय, पण समजवानी दरकार अने उत्साहभाव होय. अहो! आ ज्ञानी मने
मारा हितनी वात संभळावे छे–मारा अपूर्व कल्याणनी वात कहे छे – एम अंतरमां अपूर्व उल्लासभाव
लावीने पात्र जीव आत्मस्वरूपने समजी जाय छे.
पहेलांं न समजाय तेथी कंटाळीने भागतो नथी, पण समजवा माटे धीरजपूर्वक ऊभो रहे छे अने
आंखो फाडीने टगटग जोई ज रहे छे. एवा शिष्यने आचार्यदेव समजावे छे के ‘हे भाई! अंतरमां जे सदाय
दर्शन–ज्ञान–चारित्रने प्राप्त छे ते आत्मा छे.’ जुओ, राग ते आत्मा नथी, देहनी क्रिया करे ते आत्मा नथी, पण
सदाय दर्शन–ज्ञान–चारित्रस्वरूप आत्मा छे. ‘आत्मा’ शब्दनो आवो