Atmadharma magazine - Ank 106
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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: २०६ : आत्मधर्म–१०६ : श्रावण : २००८ :
अर्थ समजावे छे त्यारे तुरत ज उत्पन्न थता अत्यंत आनंदथी ते शिष्यना हृदयमां सुंदर ज्ञानतरंगो ऊछळे छे.
आ गाथामां आचार्यदेवे सम्यग्द्रर्शननी पांचे लब्धि समावी दीधी छे : (१) ‘आंखो फाडीने’ जोई ज
रहे छे–एमां क्षयोपशमलब्धि आवी जाय छे, समजवा जेटलो ज्ञाननो उघाड थयो छे. (२) संसारना विषय
कषाय तरफना भाव छोडीने, आत्मस्वरूप समजवा माटे टगटग जोई रह्या छे ने स्व–तरफना विचार लंबावे
छे–तेमां कषायनी घणी मंदता छे एटले विशुद्धिलब्धि आवी जाय छे. (३) ‘आत्मा’ शुं छे तेनुं स्वरूप होंश
पूर्वक ज्ञानी पुरुष पासेथी सांभळ्‌युं ते देशनालब्धि छे. (४) समजवा माटे टगटग जोई ज रहे छे एटले के
ज्ञानने अंतरमां एकाग्र करतो जाय छे त्यां प्रायोग्यलब्धि थई जाय छे. (५) सम्यग्दर्शन थवा टाणे
अंर्तपरिणाममां स्वतरफ ढळतो विशुद्धभाव थाय छे ते वखते करणलब्धि थई जाय छे. ने पछी तरत ज शुद्ध
आत्मानो निर्विकल्प अनुभव करे छे, त्यां ज्ञान–आनंदना अपूर्व तरंग उल्लसे छे, अनादिकाळथी कदी पण
नहोतो अनुभव्यो एवा अपूर्व आनंदनो अनुभव थाय छे. पूर्वे अनंतवार चार लब्धि सुधी आवीने जीव
पाछो फर्यो–एवी वात अहीं नथी; अहीं तो एवी अपूर्व वात छे के जेने देशना वगेरे लब्धि मळे ते आगळ
वधीने निर्विकल्प अनुभव करे ज छे. ‘आत्मा’ एवा शब्द सामे जोईने शिष्य नथी अटकतो, पण तेना
वाच्यभूत वस्तुने पकडीने तेनो अनुभव करे छे. ‘जे दर्शन–ज्ञान–चारित्रने हमेशांं प्राप्त होय ते आत्मा छे’ –
एम भेद पाडीने समजाव्युं. पण शिष्य ते भेद उपर लक्ष करीने नथी अटकतो, पण ते भेदरूप व्यवहारनुं लक्ष
छोडीने अभेदस्वरूप आत्माने लक्षमां लईने तेनो अनुभव करे छे. वच्चे भेदरूप व्यवहार आवे छे खरो पण
तेना अवलंबनमां रोकाय तो आत्मानुं परमार्थस्वरूप समजातुं नथी, माटे ते व्यवहारनय आश्रय करवा जेवो
नथी; भेदरूप व्यवहारनो आश्रय छोडीने अभेदस्वभावना आश्रये अनुभव करतां शुद्ध आत्मानो अनुभव
थाय छे.
श्रीगुरुना कथनमां भेद आव्यो पण तेमनो आशय तो अभेद आत्मा समजाववानो हतो, अने शिष्ये
पण भेदनुं लक्ष छोडीने अभेद आत्माने पकडी लीधो, एटले गुरु–शिष्य बंनेना अभिप्राय सरखा थया. अहो!
अत्यारे तो स्वरूप समजीने अनंता जन्म–मरण टाळवानो आ अवसर छे. अनंत जन्म–मरण टाळवा माटे
परमार्थस्वरूप आत्मानी साची समजण सिवाय बीजो कोई उपाय नथी. जेने अनंत जन्म–मरणनो डर लागतो
होय तेने स्वरूपनी समजण करवामां कंटाळो न होय पण अपूर्व उत्साह होय, भगवानआत्मानी वार्ता ज्ञानी
पासेथी वारंवार सांभळे, ने अंतरथी ऊछळी ऊछळीने तेनुं ज माहात्म्य गाया करे.
‘भाई! तारो आत्मा सदा परिपूर्ण दर्शन–ज्ञान–चारित्र स्वरूपे ज छे’ एम ज्ञानी पासेथी पोताना
आत्मानो अचिंत्य महिमा सांभळतां उल्लासथी ऊछळी जाय के अहो! मारी अनंत ज्ञान–आनंदनी रिद्धि मारी
पासे ज छे, मारा स्वभावनी पूर्णतामांथी एक अंश पण ओछो थयो नथी. आम अंतरमां स्वभावनो बोध
थतां ज अत्यंत आनंदथी हृदय खीली ऊठे छे. आचार्यभगवान तुरत मोक्ष थाय एवी अजब वात करे छे, ते
सांभळता सुपात्र जीवोने तुरत ज सम्यग्दर्शन थई जाय छे. अपूर्व भावे देशनालब्धि झील्या पछी तुरत
निर्विकल्प अनुभव थाय छे–एवी ज शैली अहीं लीधी छे, देशनालब्धि झील्या पछी अनुभव वच्चे अंतर राख्युं
नथी. जे जीव तैयार थईने, अंतरनी धगशथी समजवा माटे आव्यो ते जीव न समजे एम बने ज नहि; अने
जे समजे तेने पोताना आत्मामां अत्यंत आनंदमय मनोहर ज्ञानतरंग ऊछळे छे, तेने पोताने तेनो अनुभव
थाय छे.
श्रद्धानो विषय आखो ज्ञायकमूर्ति आत्मा छे; तेने लक्षमां लेवो ते परमार्थ छे; अने दर्शन–ज्ञान–
चारित्रना भेद पाडीने आत्माने लक्षमां लेवो ते व्यवहार छे. शरीर मारुं छे ने शरीरनी क्रिया हुं करी शकुं छुं–
एवा प्रकारनी मान्यता ते तो व्यवहार पण नथी, ते तो मात्र अज्ञान छे. अहीं तो कहे छे के गुण–गुणीना
भेदरूप व्यवहारनुं लक्ष पण छोडवा जेवुं छे; भेदरहित परमार्थस्वरूप आत्मा ते ज सम्यग्दर्शननो विषय छे.
जुओ भाई! आ विषय अनादिकाळथी जीवोए यथार्थपणे सांभळ्‌यो नथी ने समज्या नथी. जो आ समजे तो
अंतरनी दशा फरी जाय, ने अल्पकाळमां मुक्ति थई जाय.
[श्री समयसार गा. ८ उपरना प्रवचनमांथी:
वीर सं. २४७६ अषाढ वद ४]