Atmadharma magazine - Ank 106
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २००८ : आत्मधर्म–१०६ : २०७ :
(अनुसंधान पृष्ठ १९६ थी चालु)
लाभ थाय–ए वात क्यां रही? आमां क्यांय परनुं आलंबन के परमां राग–द्वेष करवानुं रहेतुं नथी, एकला
स्वद्रव्यना आलंबने वीतरागता थया एवी ज आ वात छे.
प्रश्न :– वाणी दूर हो के नजीक हो, तेनाथी तो कांई समजातुं नथी, पोताथी ज समजाय छे, तो पछी
सतसमागमनुं शुं काम छे?
उत्तर :– ‘अहो! गमे त्यां मने मारा आत्माथी पोताथी ज ज्ञान थाय छे’ –ए वात जेने अंतरमां रुची
तेने तेवुं संभळावनारा ज्ञानीओ प्रत्ये बहुमान आव्या विना रहे नहि एटले तेने सतसमागमनी भावना थया
विना रहे ज नहि; पण श्रवण वखतेय तेना लक्षमां तो एम छे के हुं जेटली मारा स्वभावनी रुचि अने
भावनानुं पोषण करुं छुं तेटलो ज मने लाभ छे, निमित्तथी के निमित्त तरफना रागथी मने लाभ नथी.
महाविदेहक्षेत्र ठीक अने भरतक्षेत्र ठीक नहि–एम ठीक–अठीकनो भाव करवानुं आत्मानी कोई शक्तिमां
नथी; नबळाईने लीधे कोई वार एवो विकल्प ऊठे तो त्यां धर्मीने निःशंकता छे के आ विकल्प मारा स्वरूपमांथी
आवेलो नथी, मारा स्वरूपमां एवी कोई शक्ति नथी के जे विकल्पने परिणमावे. मारी सर्वदर्शिशक्ति बधाने
देखनारी छे पण कोईने ठीक–अठीक माननारी नथी. आत्मानी अनंत शक्तिओने पण सर्वदर्शिशक्ति देखे छे.
जेणे आत्माने देख्यो तेणे बधुं देखी लीधुं. सर्वदर्शिशक्ति आत्मदर्शनमय छे एटले लोकालोकने देखवा माटे
आत्माने बहार डोकियुं करवुं पडतुं नथी पण आत्मस्वरूपने देखतां लोकालोक देखाई जाय छे. एक गुणनी
प्रतीत करवा जतां पण आखो आत्मा ज प्रतीतमां आवी जाय छे. आखा आत्माने जाणे तो ज एक गुणने
यथार्थ जाणे, एक पण गुणने यथार्थ समजतां अनंतगुणनो पिंड समजाय छे. एक गुणने पण खरेखर क्यारे
समज्यो कहेवाय? एक गुणनो भेद पाडीने जो तेनो आश्रय करवा जाय तो तेणे गुणने ज आखी वस्तु मानी
लीधी छे, तेणे एक गुणने पण जाण्यो नथी; एक गुणने जाणतां, तेनी साथे अभेदरूप आखा द्रव्यने पकडी ल्ये
तो ज गुणने जाण्यो कहेवाय, केमके गुणीथी जुदो गुण रहेतो नथी. घणी शक्तिओ छे तेथी कांई आत्मामां भेद
पडी जतो नथी, आत्मामां तो अनंतशक्तिथी अभेदता छे. ते अभेदताना आश्रयपूर्वक ज जुदी जुदी
शक्तिओनुं यथार्थ ज्ञान थाय छे.
आत्मानी सर्वदर्शित्वशक्ति लोकालोकने देखती होवा छतां ते निराकार छे; लोकालोकने देखवाथी ते
साकार थई जती नथी केमके ते भेद विना सर्वेने सत्तामात्र ज देखे छे; पोते निराकार आत्मदर्शनपणे परिणमीने
बधाने भेद रहित देखे छे. जड के चेतन, सिद्ध के संसारी, भव्य के अभव्य–एवा विशेष भेदो ते ज्ञाननो विषय
छे. दर्शन तेवा भेद वगर सामान्यसत्तानो प्रतिभास करे छे, अनंत गुणना पिंड अखंड आत्माने पण
दर्शनशक्ति देखे छे, तेथी सर्वदर्शिशक्तिनी प्रतीतमां अखंड आत्मानी प्रतीत पण भेगी ज छे.
लोकालोकने देखवानुं सर्वदर्शित्वशक्तिनुं सामर्थ्य छे ते उपचारथी नथी पण स्वभावथी ज छे. आवी
सर्वदर्शित्वशक्ति आत्माना ज्ञानमात्र भावनी साथे ज परिणमी रही छे. आत्मामां ज्ञान–दर्शन वगेरे अनंत
गुणोनुं परिणमन एक साथे ज छे. केवळी भगवानने पहेलांं ज्ञान परिणमे अने पछी दर्शन परिणमे एम जे
ज्ञान–दर्शननो क्रम माने तेणे एक साथे अनंत शक्तिवाळा आत्माने जाण्यो नथी, तेने खरेखर केवळी प्रभुनी
प्रतीत नथी ने आत्मानी पण प्रतीत नथी. ज्ञान ज्यां स्वभावनो आश्रय करीने परिणम्युं त्यां अनंतगुणोनुं
परिणमन तेनी साथे ऊछळी रह्युं छे. आवा अनंतधर्मोथी परिणमता एक आत्माने जाणवो तेनुं नाम
अनेकान्तधर्म छे अने ते ज मोक्षमार्ग छे.
अहीं नवमी सर्वदर्शित्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
–सर्वज्ञप्रभुए कहेली वात–
श्री आचार्यदेव कहे छे के–
तुं सिद्धसमान प्रभु छे–एवो विश्वास तने ताराथी न आवे त्यांसुधी सर्वज्ञपरमात्माए कहेली वातो
तारा अंतरमां बेसे नहि.
–श्री समयसार–प्रवचनो भा. १, पृ. ३३