Atmadharma magazine - Ank 106
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. B. 4787
सत्य
आत्मानुं सत्य स्वरूप शुं छे ते समयसारमां आचार्यदेव
समजावे छे. लोकोने अंतरनुं सूक्ष्म तत्त्व मोंघुं थई पड्युं छे,
केमके तेनी वात कदी सांभळी नथी. केटलाक बोलका तो एवुं
भरडे के तत्त्वनो कांई मेळ होय नहि! अंतरनी वस्तुने जाण्या
विना बहारनी वातोना धडाका करे. बापु! अनंतकाळमां तने
सम्यक् वस्तुस्थितिनी खबर पडी नथी, तें अंतरनी जिज्ञासाथी
सत् सांभळ्‌युं पण नथी. आ तो पूर्वे अनंत काळे नहि प्राप्त
थयेल एवी अपूर्व चीज छे. आ समज्या विना कोईनुं कल्याण
थाय तेम नथी.
कोई कहे के ‘तमे अमने समजावो तो तमे साचा!’ पण
भाई, एम बने नहि; कोई बीजो माने तो ज सत्यनी किंमत
थाय एवुं सत्य नथी. तुं जुदो स्वतंत्र छो, तने कोई बीजो
समजावी शके नहि. तारी तैयारी विना बीजो कोई तने निमित्त
पण थई शके नहि. सामो जीव पोतानी पात्रताथी समजे तो
समजवामां बीजो निमित्त कहेवाय, अने न समजे तो बीजो तेने
निमित्त पण न कहेवाय. आ तो पोते पोतानुं स्वरूप समजीने
पोतानुं कल्याण करी लेवानी वात छे, जगत समजे के न समजे,
पण जे सत्य छे ते कांई फरे तेम नथी. जगत न समजे तेथी
कांई सत्य फरीने असत् न थई जाय. बीजा न समजे तेथी कांई
पोतानुं कल्याण अटकी जतुं नथी. दरेक जीव स्वतंत्र छे, तेथी
बीजा जीवो न समजे ने विरोध करे तोपण ज्ञानीने पोतानी
समजणमां शंका पडती नथी.
[जुओ, समयसार–प्रवचन भाग १, पृ: १६४]
प्रकाशक :– श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, मोटा आंकडिया, (जिल्ला अमरेली)
मुद्रक :– रवाणी एन्ड कंपनी वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, अनेकान्त मुद्रणालय: मोटा आंकडिया, ता. २२–७–५२