Atmadharma magazine - Ank 107
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २००८ : आत्मधर्म–१०७ : २२७ :
(अनुसंधान पाना नं. २३ थी चालु)
विकारनुं पण ग्रहण के त्याग तेना स्वभावमां नथी. स्वभावमां विकार होय तो छोडे ने? शुद्धस्वभावद्रष्टिथी आत्मामां
विकार छे ज नहि, तेथी स्वभावद्रष्टिमां आत्मा विकारनो कर्ता नथी तेम तेनो छोडनार पण नथी. हुं विकारनो कर्ता छुं–
एवी जेनी बुद्धि छे ते तो मिथ्याद्रष्टि छे ज, अने हुं विकारने छोडुं–एवी जेनी बुद्धि छे ते पण पर्यायमूढ मिथ्याद्रष्टि छे.
‘हुं विकारने छोडुं’ एवा लक्षे विकार छूटतो नथी पण विकारनी उत्पत्ति थाय छे, छतां तेने विकार टाळवानो उपाय
माने छे ते जीव पर्यायबुद्धि छे, तेने विकार वगरनो स्वभाव लक्षमां आव्यो नथी. विकारने छोडवा उपर जेनुं जोर छे
ते जीव विकारनो स्वामी थाय छे. ज्ञानी तो स्वभावनो स्वामी थईने परिणमे छे त्यां तेने विकारनी उत्पत्ति ज थती
नथी. शास्त्रमां एवा उपदेशवचन आवे के ‘विकारने छोडो!’ पण विकार केम छूटे? –के स्वभावसन्मुख थाय तो.
विकारनी सामे जोया करे तेथी कांई विकार छूटतो नथी. ‘चैतन्य–स्वभाव ते हुं’ ने ‘राग हुं नहि’ एम ज्ञानवडे भेद
पाडीने, स्वभाव तरफ ज्ञानने अंतर्मुख करीने परिणमतां विकार–रहित शुद्धदशा थई जाय छे. –आवुं कार्य करवुं तेनुं
नाम धर्म छे, अने ते ज मुक्तिनो उपाय छे; आ सिवाय बीजा कार्यथी धर्म के मुक्ति थती नथी.
धर्मी जीवनी स्व – परप्रकाशक शक्ति
स्वभावनी द्रष्टि मुख्य राखीने धर्मी जीव रागने पण जाणे छे, पण त्यां ‘राग ते हुं’ एम ते रागनो
कर्ता थतो नथी; रागनी सन्मुख द्रष्टि राखीने रागने नथी जाणतो पण स्वभावनी सन्मुख द्रष्टि राखीने रागने
जाणी ले छे; रागने स्वभाव तरीके नथी जाणतो पण स्वभावथी भिन्न तरीके जाणे छे. –आवी धर्मी जीवनी स्व–
परप्रकाशक शक्ति छे. स्वभाव तरफ वळतां स्वने तेम ज विकारने अने परने जाणे एवी स्व–परप्रकाशक
ज्ञाताशक्ति प्रगट थाय छे.
जुओ, आमां अनेक न्यायो आवी जाय छे. स्वसन्मुख थतां जे स्व–परप्रकाशक ज्ञान खील्युं ते ज्ञान
स्वने जाणतां, परनिमित्तो केवा होय तेने पण जाणे छे; सम्यग्ज्ञान प्रगट्युं तेमां केवा देव–गुरु–शास्त्र निमित्त
हता तेने पण ते ज्ञान बराबर जाणे छे. देव–गुरु–शास्त्रना स्वरूपमां पण जेने गोटा होय तेने स्व–परप्रकाशक
ज्ञान ज खील्युं नथी. जेने स्व–परप्रकाशक ज्ञान खीले तेने, ते ज्ञानमां निमित्तरूप साचा देव–गुरु–शास्त्र केवां
होय तेनुं पण बराबर भान होय छे. श्री पद्मनंदिआचार्य कहे छे के– (एकत्वसप्ततिमां)
तत्प्रतिप्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता। निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम्।।२३।।
–जे जीवे चैतन्यस्वभावनी प्रीतिपूर्वक तेनी वात पण सांभळी छे ते जीव अवश्य भविष्यमां थनारी मुक्तिनुं
भाजन छे. अहीं ‘श्रुताः’ एटले सांभळवानुं कह्युं छे, तेमां सामे संभळावनार निमित्त केवा होय तेने ओळखवानी
जवाबदारी पण भेगी आवी जाय छे. कुगुरु वगेरे गमे तेनी पासेथी सांभळीने सम्यग्ज्ञान थई जाय–एम नथी.
ज्यां पोते पात्र थईने जाग्यो अने अपूर्व भान प्रगट कर्युं त्यां सामे कयुं निमित्त हतुं, केवा देव–गुरु–शास्त्र निमित्त
रूपे होई शके, तेनुं पण यथार्थ भान थया वगर रहेतुं नथी. सम्यग्ज्ञाननुं आवुं स्व–परप्रकाशक सामर्थ्य छे.
दरेक जीवे करवा जेवुं खरुं कार्य
जुओ भाई! पूर्वे अनंत अनंत काळमां कदी एक सेकंड पण नथी समज्यो एवी सूक्ष्म आ वात छे.
पोतानुं अपूर्व कल्याण करवा माटे आ वात समजवा जेवी छे. आ वात समज्या वगर भवथी निवेडा थाय तेम
नथी. दरेक जीवमां आ समजवानी ताकात भरी छे. अहो! जेटलुं सामर्थ्य सिद्ध भगवानमां छे तेटलुं परिपूर्ण
सामर्थ्य मारा आत्मामां पण भर्युं छे, मारो आत्मा पण सिद्ध भगवान जेवो छे–आम पोताना सामर्थ्यनो
विश्वास अने उल्लास लावीने होंशपूर्वक श्रवण–मंथन करवुं जोईए; ‘मने नहि समजाय
एवी नमाली मान्यता
छोडी देवी जोईए. भगवान श्री आचार्यदेवे समयसारनी पहेली गाथामां ज आत्मामां सिद्धपणुं स्थाप्युं छे के हुं
सिद्ध छुं अने तुं सांभळनार पण सिद्ध छे; अमे क्षणिक विकारने लक्षमां मुख्य न लेतां तारा ज्ञानमां तारा
आत्मानुं सिद्धपणुं स्थापीए छीए, माटे तुं पण तारा ज्ञानमां ते वात बेसाडीने पहेले धडाके सिद्धपणानी हा
पाड; पूर्णताना लक्षे तारा पुरुषार्थने उपाड! जेणे पोताना आत्मामां सिद्धपणुं स्थापीने पूर्णताना लक्षे शरूआत
करी तेने अल्पकाळमां पूर्ण सिद्धदशा प्रगट्या वगर रहे नहि. माटे पोताना परिपूर्ण स्वभावसामर्थ्यने
ओळखीने तेनी प्रतीत करवी ते ज दरेक जीवे करवा योग्य प्रथम कार्य छे.
–ए प्रमाणे जीवनुं खरुं कार्य समजाव्युं.
[वर स. २४७६, फगण सद ९ न रज रजकटम समयसर गथ. ७१ उपर प्रवचन]