Atmadharma magazine - Ank 107
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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: २२६ : आत्मधर्म–१०७ : भाद्रपद : २००८ :
पोते जवाबदारीमांथी छूटी जाय, ते भगवानना नामे कथन भले करे पण खरेखर भगवाने शुं कह्युं छे ते भाव
तेणे पोताना आत्मामां झील्यो नथी, एटले ते आवुं कथन करी शके ज नहि, तेनी वाणीमां पोतानी भूमिकाना
विवेक सहित आवी निःशंकता अने नम्रता आवे ज नहि; भगवानना नामे करेलुं तेनुं कथन पण यथार्थ न होय.
‘भगवान कहे छे तेम हुं कहुं छुं माटे मारा कथनमां कोई पण प्रकारनी भूल थवानो संभव ज नथी’ –
एम भगवाननुं नाम लईने पोतानी छद्मस्थपर्यायनो विवेक चूकी जाय तो ते यथार्थ नथी; केमके, भले
सर्वज्ञभगवाने अने गणधरदेवे कह्युं पण तेमनी वाणीने झीलनारो तुं तो सर्वज्ञ नथी ने! –माटे तारा कथनमां
कोई प्रकारनो दोष थवानो पण संभव छे; छतां जो तेने तुं न स्वीकार तो तने तारी पर्यायनो विवेक नथी.
अहीं श्री कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के सर्वज्ञभगवाननो आशय मारा ज्ञानमां आव्यो छे, सर्वज्ञभगवाने
जेवो शुद्धात्मा कह्यो छे तेवा ज शुद्धात्मानुं प्रचुर स्वसंवेदन मारा आत्मामां प्रगट्युं छे. तेथी, हुं अल्पज्ञ होवा
छतां, जे शुद्धात्मा कहीश ते तो सर्वज्ञदेवना आशय अनुसार यथार्थ ज कहीश, तेमां सर्वज्ञथी विरुद्ध नहि आवे,
कदाच व्याकरण के छंद वगेरेमां दोष आवी जाय तो तेने ग्रहण करवामां श्रोताजनो सावधान थशो नहि;
सावधानी तो शुद्धात्मामां ज राखजो.
कोई एम पूछे छे के तमे तो सीमंधर भगवान पासे जईने सीधुं श्रवण कर्युं छे, तो तमारा कथनमां कांई
पण दोष केम आवे? तो आचार्यप्रभु कहे छे के कहेनारा भगवान भले सर्वज्ञ हता पण हुं झीलनार तो अल्पज्ञ
हतो ने! क्यां सर्वज्ञ अने क्यां हुं! भगवाननी भूल न होय पण छद्मस्थनी तो भूल थई पण जाय. हुं छद्मस्थ
मुनि होवाथी मारी वाणीमां व्याकरण–विभक्ति वगेरेनो कोई दोष आवी जवानो संभव छे. परंतु मारे जे
शुद्धात्मा दर्शाववो छे तेमां तो हुं नहि ज चूकुं; ते तो मारा आत्माना निजवैभवथी हुं बराबर देखाडीश अने
तमे ते प्रमाण करजो.
जुओ, आचार्यदेव यथार्थ वस्तुस्थिति स्पष्ट करे छे. तेमनुं कथन निःशंकता अने निर्मानताथी भरेलुं छे.
भले मने सर्वज्ञ भगवाननो सीधो उपदेश सांभळवा मळ्‌यो परंतु हुं तो छद्मस्थ छुं, हुं केवळी के श्रुतकेवळी नथी;
उपदेशक श्री सीमंधर भगवान सर्वज्ञ हता पण ते उपदेश झीलनार हुं छद्मस्थ छुं; में मारी शक्ति अनुसार
झीलीने शुद्धात्माने तो स्वसंवेदनप्रत्यक्ष कर्यो छे तेथी तेमां तो निःशंकता छे. अने ‘क्षयोपशमना कोई प्रकारमां
भूल थवा संभव पण छे’ –एम कहेवामां निर्मानता छे. अहो! सर्वज्ञना अचिंत्य सामर्थ्यनी तो शुं वात!
तेमनी दिव्य–वाणीमां तो भूल न आवे; तेम ज महासमर्थ गणधरदेव केवळीप्रभुनी वाणी झीलीने जे श्रुतनी
रचना करे तेमां पण कांई भूल न आवे. पण हुं केवळी नथी तेम ज गणधरदेव जेटली मारी ताकात नथी, तेथी
कोई ठेकाणे शब्दरचनामां फेर पडी जवा संभव छे. आ कथन करनारा कुंदकुंदाचार्यदेव महासमर्थ संत छे, धर्मना
थांभला छे, अगाध शक्ति धरावे छे.... छतां जुओ तो खरा, तेमनी निर्मानदशा! केटली गंभीरता छे!!
साधारण तुच्छ जीवो तो जराक शास्त्रनुं जाणपणुं थाय त्यां अभिमानमां चडी जाय के मने घणुं आवडे छे. अने
आ आचार्यभगवानने तो अंतरमां अगाध... अगाध शक्ति वर्तती होवा छतां जुओ एमनी दशा!
केवळी भगवान पासे जईने साक्षात् सांभळ्‌युं होवा छतां श्री आचार्यदेव कहे छे के कहेनार भले केवळी
हता पण झीलनार तो अमे छद्मस्थ छीए ने! सीमंधर भगवाननी वाणी झीलनार हुं छद्मस्थ छुं. अत्यारे आ
समयसारनुं कथन सर्वज्ञदेव नथी करता, पण सर्वज्ञदेवनी वाणीमांथी मारी शक्ति जेटलुं झीलीने हुं कहुं छुं. हुं
सर्वज्ञ नथी तेथी, –जोके स्वसंवेदनप्रत्यक्षना विषयमां तो फेर नहि ज पडे, पण–ज्ञानना उघाडना कोई
व्याकरणादि बोलमां जो क्यांय फेर पडी जाय तो तेने ग्रहण करशो नहि; केमके मारो हेतु शुद्धात्मानुं कथन
करवानो छे, माटे तमे पण ए ज हेतु लक्षमां राखीने सांभळजो. जो व्याकरण–छंद वगेरेना दोषो जोवामां अटकी
जशो तो तमे तमारुं लक्ष शुद्धात्मा उपरनुं चूकी जशो. माटे हे श्रोताजनो! तमे आ समयसारनुं श्रवण करतां
शुद्ध–एकत्व विभक्त आत्मकथनीनुं लक्ष चूकीने बीजा अप्रयोजनभूत बाबतना लक्षमां अटकशो नहि, पण शुद्ध
आत्माने ज ग्रहण करजो. एटले आ समयसारनुं श्रवण करनारा पात्र श्रोताओए बीजा जाणपणा उपर वजन
न आपतां पोताना शुद्ध आत्माने जाणवा उपर ज वजन आपवुं–एवी श्रोताओनी पण जवाबदारी छे. जे जीव
एकत्व–विभक्त शुद्ध आत्मा सिवाय बीजा भावो उपर वजन आपशे, ते शुद्धात्माने देखी नहि शके, तेने अमे
समयसारनो श्रोता गणता नथी.
[श्र समयसर गथ ५ उपरन प्रवचनमथ. २४७६, अषढ सद प]