Atmadharma magazine - Ank 108
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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आसो: २४७८ : २४३ :
किंचित् सुख मानता न हता. एवी पवित्र सतिओ बीजा सामे जुए नहि. अहीं सतिओनो दाखलो आपीने
एम समजाववुं छे के जेम पवित्र सतिओ बीजा पुरुषनी सामे जोती नथी तेम भगवान आत्मानो एवो
स्वच्छ–पवित्र स्वभाव छे के कोई बीजानी सामे जोया विना, पोते पोताना स्वभावथी ज लोकालोकने
जाणवारूपे परिणमी जाय छे, ईन्द्रियोना आलंबनथी के परज्ञेयोनी सन्मुखताथी ते नथी जाणतो.
आ द्रव्यद्रष्टिनी वात छे; वर्तमान पर्यायमां कचास होवा छतां, स्वसन्मुख स्वभावनी प्रतीत करवानी
आ वात छे. जेटलुं बहिर्मुख वलण जाय ते मारुं स्वरूप नथी, मारो आखो स्वभाव अंतर्मुख छे. मारा
स्वभावनी स्वच्छता एवी छे के तेनी सामे जोतां बधुंय जणाई जाय छे. बहारमां जोवा जतां तो विकल्प ऊठे छे
ने पूरुं जणातुं नथी; लोकालोकने जाणवा माटे बहारमां लक्ष लंबाववुं नथी पडतुं पण अंतरमां एकाग्र थवुं पडे
छे; अनंतुं अलोकक्षेत्र, अनंतो काळ ने लोकना अनंता पदार्थो ते बधुं य स्वभावनी सामे जोतां जणाई जाय छे.
लोकालोकनी सामे जोईने कोई जीव लोकालोकनो पार न पामी शके, पण ज्ञान अंदरमां ठरतां लोकालोकनो पार
पामी जाय छे. ––आम धर्मीने पोताना अंतर्मुख स्वभावनी प्रतीत छे.
आचार्यदेव कहे छे के अरे भाई! तुं परने जाणवानी आकुळता छोडीने तारामां ठर. परने जाणवानी
आकुळता करवाथी तो सारुं ज्ञान ऊलटुं रोकाई जशे ने पूरुं जाणी नहि शके. पण जो स्वरूपमां स्थिर था तो
तारा ज्ञाननो एवो विकास प्रगटी जशे के लोकालोक तेमां सहजपणे जणाशे. माटे स्वभावसन्मुख थईने तारी
स्वच्छताना सामर्थ्यनी प्रतीत कर अने तेमां ठर. जुओ, ओ लोकालोकने जाणवानो उपाय!
अमूर्तिक आत्मप्रदेशोमां ज लोकालोक झळके छे. लोकमां मूर्तिक पदार्थो छे तेओ पण अमूर्तिकज्ञानमां
जणाय छे. मूर्तिकपदार्थोने जाणतां ज्ञान कांई मूर्तिक थई जतुं नथी, केम के मूर्तिक पदार्थोनुं ज्ञान तो अमूर्तिक ज
छे. जगतमां आत्मा छे, तेमां ज्ञानगुण छे, तेना उपयोगनुं परिणमन छे, तेनुं पूर्ण स्वच्छ परिणमन थतां तेमां
लोकालोक जणाय छे, सामे लोकालोक ज्ञेयपणे छे, पण लोकालोकने जाणनारुं ज्ञान तेनाथी जुदुं छे, लोकालोकनुं
ज्ञान तो आत्मप्रदेशोमां ज समाई जाय छे. ––एक स्वच्छत्वशक्तिने मानतां तेमां आ बधुंय आवी जाय छे. जे
आ बधुं न स्वीकारे तेने आत्माना स्वच्छत्वस्वभावनी प्रतीत नथी.
अरीसानी स्वच्छताने लीधे तेमां मयूर वगेरे स्वयंप्रकाशित थाय छे. जिनमंदिरमां बंने बाजुना
अरीसामां अनेक जिनप्रतिमानी हार होय तेवुं देखाय छे, त्यां अरीसामां कांई जिनप्रतिमा नथी, ते तो
अरीसानी स्वच्छतानुं तेवुं परिणमन छे. अनेक प्रकारना रंग अने आकृतिओ अरीसामां देखाय छे ते कांई
बहारनी उपाधि नथी पण अरीसानी स्वच्छतानी ज अवस्था छे. तेम आत्मानो एवो स्वच्छस्वभाव छे के
तेना उपयोगना परिणमनमां लोकालोकनुं प्रतिबिंब झळकी रह्युं छे, अनंत सिद्ध भगवंतो ज्ञानमां एक साथे
झळकी रह्या छे; त्यां ज्ञानमां कांई परद्रव्यो नथी पण ज्ञाननी स्वच्छतानुं ज तेवुं परिणमन छे. ज्ञानमां
लोकालोकनी उपाधि नथी. अहो! आवा स्वच्छ ज्ञानस्वभावमां क्यांय परनुं आलंबन, विकार के अधूराश छे ज
क्यां?
जेम बजारमां दुकानमां अरीसो टांग्यो होय तेमां बजारमां चाल्या जता हाथी घोडा मोटर सायकल
माणसो स्त्रीओ कोलसा के विष्टा वगेरे विचित्र पदार्थो झळके छे पण ते अरीसाने कोई उपर राग के द्वेष थतो
नथी; अरीसो पोते स्थिर रहे छे ने पदार्थो तेमां स्वयमेव झळके छे. तेम आत्माना चैतन्यअरीसामां विश्वना
समस्त चित्र–विचित्र पदार्थो झळके छे एवो तेनो स्वभाव छे पण तेमां कोई उपर रागद्वेष करवानो तेनो
स्वभाव नथी; सिद्ध उपर राग अने अभव्य उपर द्वेष करे एवुं तेमां नथी, ते तो निजस्वरूपमां स्थिर रहीने
वीतरागपणे विश्वना प्रतिबिंबने पोतामां झळकावी रह्यो छे. अरीसानुं द्रष्टांत आप्युं ते अरीसो तो जड छे, तेने
परनी के पोताना स्वभावनी खबर नथी, आत्मा तो लोकालोक–प्रकाशक चैतन्यअरीसो छे, ते पोते पोताना
स्वभावनो तेमज परनो प्रकाशक छे. स्थिर थईने पोते पोताना अरीसामां जुए तो तेमां पोतानुं शुद्धस्वरूप
देखाय, ने लोकालोकनुं पण ज्ञान थई जाय.
जुओ, अहीं आचार्यभगवान कहे छे के निजस्वरूपने जाणतां परनुं ज्ञान थई जाय छे. स्वभावने जाण्या
वगर एकला परने ज जाणवा जाय तो ते मिथ्याज्ञान छे, तेमां परनुं पण यथार्थ ज्ञान थतुं नथी. ज्यां
स्वप्रकाशकतारूप निश्चय होय त्यां ज परप्रकाशकतारूप व्यवहार होय छे.