Atmadharma magazine - Ank 110
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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मागशर : २४७९ : २३ :
धर्मी जीवनी प्रवृत्ति
धर्मी जीवने केवी प्रवृत्तिथी धर्म थाय छे ते अहीं
समजाव्युं छे : धर्मी जीवोने देहादिनी बाह्य प्रवृत्तिने लीधे
धर्म थतो हशे–एम अज्ञानीओने बाह्यद्रष्टिथी लागे छे पण
ते मात्र भ्रमणा ज छे. धर्मात्मा तो पोताना शुद्ध–आत्माने
देहादि समस्त परपदार्थोथी भिन्न जाणीने तेमां ज प्रवृत्ति
करे छे अने ते शुद्धात्म–प्रवृत्तिथी ज धर्मीने धर्म थाय छे.
आ रीते पोताना शुद्धात्माने जाणीने तेमां प्रवृत्ति करवी ते
ज धर्मी जीवनी प्रवृत्ति छे. आवी शुद्धात्म–प्रवृत्ति कई रीते
थाय ते आ प्रवचनमां पू. गुरुदेवश्री समजावे छे.

आत्माने कई प्रवृत्तिथी धर्म थाय तेनी आ वात छे. आत्माना धर्मनी प्रवृत्ति आत्माथी बहार न
होय; शरीरादि पदार्थो आत्मानी बहार छे, तेमां आत्माना धर्मनी प्रवृत्ति रहेती नथी. पहेलांं जे जीव देहादिथी
भिन्न पोताना शुद्धआत्माने जाणे तेने तेमां प्रवृत्ति थाय, अने एवी शुद्धात्मामां प्रवृत्ति करवी तेनुं नाम धर्म छे.
जेणे पोताना शुद्ध आत्माने जाण्यो नथी तेने तेमां प्रवृत्तिरूप धर्म थतो नथी. शरीरादि पर वस्तु के तेना लक्षे
थता शुभाशुभ भाव ते कोई मने शरण नथी, हुं तेनाथी रहित शुद्ध ज्ञानस्वरूप छुं, मारुं धु्रवस्वरूप ज मने
शरण छे–एम जेणे जाण्युं छे तेने तेमां ज प्रवृत्ति द्वारा धर्म थाय छे.
‘हुं ज्ञानस्वभावी आत्मा छुं, शरीरादि कोई भिन्न पदार्थो मने शरणरूप नथी, क्षणिक अवस्थामां विकार
थाय ते पण मारुं कायमी स्वरूप नथी. हुं कायमी जाणनार देखनार स्वरूपे धु्रव छुं–आवो मारो धु्रवस्वभाव ज
मने शरणभूत छे’–एम शुद्धआत्माने जाणीने तेमां ज प्रवृत्तिद्वारा शुद्ध–आत्मपणुं होय छे. धु्रवआत्माने जाणीने
तेमां प्रवृत्ति करवी ते ज धर्म छे; अने ए ज धर्मी जीवनी प्रवृत्ति छे.
शुद्धात्मानुं ज्ञान अने तेमां प्रवृत्ति–एम क्रमथी वात समजावी छे, पण खरेखर तो ज्यां शुद्धआत्मा तरफ
वळीने तेनुं ज्ञान कर्युं त्यां ते ज्ञान भेगी ज शुद्धात्मामां प्रवृत्ति थई गई अने मोहनो क्षय थई गयो. पहेलांं
शुद्धआत्माने जाण्यो, पछी तेमां प्रवृत्ति थई अने पछी मोहनो क्षय थयो–एम क्रमभेद नथी.
जुओ आ प्रवृत्ति! देहनी प्रवृत्तिथी के शुभरागनी प्रवृत्तिथी धर्म नथी पण शुद्धात्मामां प्रवृत्तिथी ज
धर्म थाय छे. पहेलांं सत्समागमे आवा शुद्धआत्माने ख्यालमां लेवो जोईए. ज्ञानने अंतर्मुख करीने शुद्ध
आत्माने जाणतां अंदरमां परथी जुदा पडवानी प्रवृत्तिरूप जे क्रिया थाय ते धर्म छे. माटे देहादिनी प्रवृत्तिथी धर्म
थाय ए मान्यता छोडीने शुद्धात्मामां प्रवृत्तिरूप क्रियानो अभ्यास करवो जोईए. स्थूळ द्रष्टिवाळा लोको शरीर
हाले–चाले तेने ज क्रिया समजे छे; परंतु, मात्र शरीर हाले–चाले तेनुं नाम ज ‘क्रिया’ नथी पण अंदर
आत्मानी ओळखाण करीने तेमां एकाग्र थवुं ते पण क्रिया छे ने ते ज धर्मात्मानी धर्मक्रिया छे. शरीरनी क्रिया
ते तो जडनी क्रिया छे.
जे जीव शुद्धात्माने जाणे छे तेने तेमां ज प्रवृत्ति वडे शुद्धता थाय छे, बहारनी कोई प्रवृत्तिथी
आत्माने शुद्धता थाय–एम बनतुं नथी. कोईने एम लागे के शुद्ध आत्माने जाण्या पछी तो बहारथी कांई
प्रवृत्ति करवानुं आवतुं