धर्म थतो हशे–एम अज्ञानीओने बाह्यद्रष्टिथी लागे छे पण
ते मात्र भ्रमणा ज छे. धर्मात्मा तो पोताना शुद्ध–आत्माने
देहादि समस्त परपदार्थोथी भिन्न जाणीने तेमां ज प्रवृत्ति
आ रीते पोताना शुद्धात्माने जाणीने तेमां प्रवृत्ति करवी ते
ज धर्मी जीवनी प्रवृत्ति छे. आवी शुद्धात्म–प्रवृत्ति कई रीते
थाय ते आ प्रवचनमां पू. गुरुदेवश्री समजावे छे.
आत्माने कई प्रवृत्तिथी धर्म थाय तेनी आ वात छे. आत्माना धर्मनी प्रवृत्ति आत्माथी बहार न
भिन्न पोताना शुद्धआत्माने जाणे तेने तेमां प्रवृत्ति थाय, अने एवी शुद्धात्मामां प्रवृत्ति करवी तेनुं नाम धर्म छे.
जेणे पोताना शुद्ध आत्माने जाण्यो नथी तेने तेमां प्रवृत्तिरूप धर्म थतो नथी. शरीरादि पर वस्तु के तेना लक्षे
थता शुभाशुभ भाव ते कोई मने शरण नथी, हुं तेनाथी रहित शुद्ध ज्ञानस्वरूप छुं, मारुं धु्रवस्वरूप ज मने
शरण छे–एम जेणे जाण्युं छे तेने तेमां ज प्रवृत्ति द्वारा धर्म थाय छे.
मने शरणभूत छे’–एम शुद्धआत्माने जाणीने तेमां ज प्रवृत्तिद्वारा शुद्ध–आत्मपणुं होय छे. धु्रवआत्माने जाणीने
तेमां प्रवृत्ति करवी ते ज धर्म छे; अने ए ज धर्मी जीवनी प्रवृत्ति छे.
शुद्धआत्माने जाण्यो, पछी तेमां प्रवृत्ति थई अने पछी मोहनो क्षय थयो–एम क्रमभेद नथी.
आत्माने जाणतां अंदरमां परथी जुदा पडवानी प्रवृत्तिरूप जे क्रिया थाय ते धर्म छे. माटे देहादिनी प्रवृत्तिथी धर्म
थाय ए मान्यता छोडीने शुद्धात्मामां प्रवृत्तिरूप क्रियानो अभ्यास करवो जोईए. स्थूळ द्रष्टिवाळा लोको शरीर
हाले–चाले तेने ज क्रिया समजे छे; परंतु, मात्र शरीर हाले–चाले तेनुं नाम ज ‘क्रिया’ नथी पण अंदर
आत्मानी ओळखाण करीने तेमां एकाग्र थवुं ते पण क्रिया छे ने ते ज धर्मात्मानी धर्मक्रिया छे. शरीरनी क्रिया
ते तो जडनी क्रिया छे.
प्रवृत्ति करवानुं आवतुं